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________________ ૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયના સમર્થક શ્રી અર્જુત્તિથિભાસ્કર ] ૧૧૫ में सत्रहव गाथा की व्याख्या के अवसर पर स्पष्ट की गई है, वहाँ साफ शब्दों में कहा गया है कि जिस दिन जो तिथि अहोरात्र व्याप्त होकर रहती हो पर उस दिन उसकी समाप्ति न होती हो तो उस दिन उस तिथि को सम्पूर्ण समझना भ्रम है और जिस दिन जो तिथि समाप्त हो जाती हो उस दिन बहुत थोडी मात्रा में होने पर भी वह उस दिन सम्पूर्ण समझी जानी चाहिये । ' उपर्युक्त समग्र विचारों का निष्कर्ष यह है कि कौन तिथि कब प्रवेश करती है, कब तक रहती है और कब समाप्त होती है- इस विषय में ज्योतिष और तदाश्रित टिप्पण ही प्रमाण हैं, इस बारे में धर्मशास्त्र या अन्य किसी का भी हस्तक्षेप सह्य नहीं है । धर्मशास्त्र को तो केवल यह बताने का अधिकार प्राप्त है कि किस प्रकार की तिथि तथा कौन तिथि किस धर्म कार्य में किस प्रकार से ग्राह्य है । धर्मशास्त्र से प्रतिपादित तिथि - प्रकार कब मिलता है - यह बात तो टिप्पण से ही विदित करने की वस्तु है । सभी तिथियों के टिप्पणोक्त काल को ही मानना - इस निश्चय पर यह प्रश्न उठता है कि जैन सम्प्रदाय में. जो यह व्यवस्था प्रचलित है कि एक दिन सूर्योदय के समय उस पर्वतिथि की आराधना का आरम्भ और अगले दिन सूर्योदय हो जाने पर उस की समाप्ति होइस की उपपत्ति कैसे होगी ? क्यों कि पर्व तिथि के अस्तित्वकाल में ही उसको आराधना उचित है अतः पर्वतिथि का टिप्पणोदित काल मानने पर तो उसी के अनुसार उसकी आराधना का आरम्भ और समाप्ति होना उचित है, इस लिये " क्षये पूर्वा " इस वचन को सूर्योदयकाल में क्षीण पर्वतिथि के सम्बन्ध का और " तिथिश्च प्रातः इस वचन को औदयिक तिथि की अहो - पिता का विधायक मानना अनिवार्य है । इसका सीधा उत्तर यह है कि जैनशास्त्रों का यह आदेश नहीं है कि जिस कालबिन्दु में पर्वतिथि का प्रवेश हो वहीं से उसकी आराधना का आरम्भ और जिस कालबिन्दु में पर्वतिथि की निवृत्ति हो वहीं आराधना की समाप्ति होनी चाहिये । यदि यही जैनशास्त्रादेश हो तो टिप्पण को इसके सामने झुकना ही होगा, पर इस आदेशके होने में कोई प्रमाण नहीं है । "" हमें तो समस्त जैनशास्त्रों और चिरन्तन जैनपरम्परावों के पर्यालोचन से पर्वतिथियों की आराधना के सम्बन्ध में जो जैनशास्त्रादेश ज्ञात हुआ है वह यही है कि टिप्पण में जिस दिन पर्वतथि की समाप्ति का निर्देश मिले उस दिन सूर्योदय के समय से उसकी आराधना का आरम्भ और दूसरे दिन सूर्योदय होने पर उसकी समाप्ति होनी चाहिये । इस प्रकार के आदेश से यह नहीं आवश्यक जान पडता कि आराधना के आरम्भ-क्षण में आराध्य तिथि का सम्बन्धस्थापन जरूरी है तो फिर टिप्पण और " क्षये पूर्वा " इत्यादि वचनों का परस्पर संघर्ष कराने में कौन सी बुद्धिमानी है ? इस आदेश के नाते ही उस व्यक्ति को प्रत्यवाय का भाजन बनना पडता है जो कुतर्क के वशीभूत हो कर पर्वतिथि की समाप्ति होने के दिन सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक आराधना की अवश्य कर्तव्यता के विरुद्ध आचरण करता है । यहां तक यह बात बताई गई कि क्षीण पर्वतिथि की आराधना के उपपादनार्थ पर्वतिथि के टिप्पणोक्त क्षय को अस्वीकार कर उसके पूर्वकी अपर्व - तिथि का क्षय मानने और पर्व - तिथि के क्षय के दिन अपर्वतिथि के अस्तित्व एवं व्यवहार का लोप करने की न तो कोई आवश्यकता है और न वैसा करने का समर्थन करनेवाला कोई प्रमाण ही है। अब आगे यह बताया जायगा कि इस प्रकार के मन्तव्य और कर्तव्य जैनशास्त्रों के विरुद्ध हैं । जैसे–“ तत्त्वतरंगिणी " में १ देखिये मू० पु० पृ० सं० ५८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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