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________________ ૧૧૪ || જૈન દષ્ટિએ તિથિદિન અને પરાધન-સંગ્રહવિભાગ सिद्ध होगा क्यों कि उस दिन सारे अहोरात्र में टिप्पण के अनुसार सूर्योदय में रहने वाली तिथि ही व्याप्त रहेगी, फलतः क्षीण तिथि की आराधना का लोप प्राप्त होगा, इस लिये उस दिन सूर्योदयकाल में क्षीण पर्वतिथि के अस्तित्व की कल्पना होने पर फिर सारे अहोरात्र में उसी की व्याप्ति होने से उस दिन के टिप्पणोक्त औदयिक तिथि को उस दिन का त्याग कर पीछे हटना ही होगा, अतः टिप्पण के क्षेत्र को संकुचित करने के अतिरिक्त कोई मार्गान्तर नहीं है, ऐसी स्थिति में श्रीसागरानन्दसूरि के अभिमत पहले प्रकार को न मानने में दुराग्रह को छोड दूसरा क्या वाधक है ? यह प्रश्न भी अविवेक का ही प्रकाशक है, क्यों कि टिप्पण की मर्यादा को अक्षुण्ण बनाये रखने के निमित्त जिस प्रकार "क्षये पूर्वा” इस वचन की दूसरी निर्दोष व्याख्या को मान देना आवश्यक समझा जाता है उसी प्रकार “तिथिश्च प्रातः" इत्यादि वचन की भी दूसरी निर्दोष व्याख्या को मान देना आवश्यक है, ओर वह व्याख्या इस प्रकार है-जो तिथि जिस दिन सूर्योदयकाल में हो उसी दिन वह तिथि धर्मानुष्ठान में ग्राह्य है, और इस वचन की यही व्याख्या उचित भी है क्यों कि इसमें कोई दोष नहीं है, इससे टिप्पण के क्षेत्र में हस्तक्षेप भी नहीं होता और इसी को लेकर इस वचन की सार्थकता भी है, क्यों कि जो तिथि पहले दिन सूर्योदय से कुछ काल बाद प्रवृत्त होकर दूसरे दिन सूर्योदय के कुछ समय बाद तक रहती है उसकी धर्मकार्य में उपादेयता किस दिन उचित है ? इसी प्रश्न के उत्तर में इस वचन का उत्थान है। जो व्याख्या पहले की गई है कि “जो तिथि जिस दिन सूर्योदय काल में हो उस दिन सारे अहोरात्र वही तिथि व्याप्त रहती है," उसमें तो अनेक दोष हैं, क्यों कि उक्त अर्थ में टिप्पण ने पहले दिन जब से जिस तिथि का प्रवेश बताया है तब से उस दिन के अवान्तर कालों के साथ उक्त वचन को उस तिथि के सम्बन्ध का निषेधक और दूसरे दिन जब तक उस तिथि का अस्तित्व टिप्पण से प्राप्त है तब तक के काल के साथ उस तिथि के सम्बन्ध का अनुवादक तथा दूसरे दिन के शेष सभी अवान्तर कालों के साथ उस तिथि के सम्बन्ध का विधायक मानना होगा, टिप्पण की दुर्दशा अलग होगी, और यह सब होगा निष्प्रयोजन । सूर्योदय के समय की तिथि की सत्ता सारे अहोरात्र में न मानने पर सम्पूर्ण अहोरात्र में सूर्योदयकालिक तिथि का जो सर्वजनसम्मत व्यवहार होता है उस का लोप हो जायगा यह शंका भी निरास्पद है, क्यों कि सूर्योदयकालिक तिथि की टिप्पणोक्त काल-मात्र तक ही सत्ता मानने पर भी “ आज अमुक तिथि है" इस व्यवहार की उपपत्ति हो जाती है, और " आज अहोरात्र अमुक तिथि है" ऐसा व्यवहार तो किश्चित्कालिक तिथि के सम्बन्धमें असिद्ध ही है। आदित्योदयवेलायां या स्तोकापि तिथिर्भवेत् । सा सम्पूर्णेति मन्तव्या प्रभूता नोदयं विना ॥” इस स्मृतिवचन का भी यह तात्यर्य है कि जिस तिथि का थोडा सा भी अंश जिस दिन सूर्योदयकाल में रहेगा उसी दिन वह तिथि प्रधान तथा धर्म-कार्य में ग्रहणाई होगी और जिस दिन सूर्योदयकाल में उसकी आंशिक स्थिति भी न होगी उस दिन अधिक मात्रा में रहने पर भी वह प्रधान नहीं मानी जायगी। इस लिये सूर्योदयकालिक तिथि की अहोरात्रव्यापिनी सत्ता का प्रतिपादन करने में इस वचन के निराधार तात्पर्य की कल्पना कर पहले जैसी कुशंका को अवसर नहीं देना चाहिये। सूर्योदय को स्पर्श करने के दिन ही तिथि की जो सम्पूर्णता कही गई है उस का भी अर्थ सम्पूर्ण दिन को व्याप्त करके रहना नहीं है किन्तु समाप्तिमूलक पूर्णता है। जो तिथि जिस दिन समाप्त होती है उसी दिन उसकी पूर्णता मानी जानी चाहिये यह बात “ तत्त्वतरंगिणी" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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