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૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયનો સમર્થક શ્રી અનિયિભાસ્કર ]
૧૧૩ अर्थात् जिस दिन जिस पर्व-तिथि के क्षय का निर्देश टिप्पण में किया गया है उस दिन उस पर्व-तिथि का ही सूर्योदय-काल में सम्बन्ध मानना चाहिये न कि टिप्पण में उस दिन औदयिकीरूप से निर्दिष्ट अन्य तिथिका । फलतः इस वचन के अनुसार जब टिप्पण में अनौदयिकी-रूप से निर्दिष्ट तिथि औदयिकी बनेगी तब औदयिकी-रूप से कथित तिथि को अनौदयिकी बनना पडेगा क्यों कि एक सूर्योदय के साथ दो तिथियों का सम्बन्ध सम्भव नहीं है। परिणाम यह होगा कि जिस पर्व-तिथि के अव्यवहित पूर्व में कोई अपर्व-तिथि होती है-जैसे अष्टमी के पूर्व सप्तमी, उसके क्षय के प्रसङ्ग में उस पर्व तिथि का क्षय न हो कर उसके पूर्व की अपर्व-तिथि सप्तमी का ही क्षय होगा और जिस पर्व-तिथि के अव्यवहित पूर्व में कोई दूसरी पर्व-तिथि ही पडती होगी-जैसे पूर्णिमा, अमावास्या के पूर्व चतुर्दशी, उसके क्षय के प्रसंग में उसकी वा उसके पूर्व को पर्वतिथि का क्षय न होकर उसके पूर्व की पर्व तिथि से पहले आनेवाली अपर्व तिथि का ही क्षय होगा-जैसे पूर्णिमा और अमावास्या के क्षय के प्रसङ्ग में त्रयोदशी का। ___ श्रीसागरानन्दसूरि ने इसी प्रकार को अपनाया है, परन्तु यह प्रकार असंगत है, क्यों कि इस प्रकार को स्वीकार करने पर टिप्पण को प्रमाण मानने पर "क्षये पूर्वा तिथिः कार्या” यह वचन नहीं प्रमाण हो सकता और इस वचन को प्रमाण मानने पर टिप्पण नहीं प्रमाण हो सकता । यदि कहें कि पर्वतिथि की प्रवृत्ति और निवृत्ति के विषय में टिप्पण को अप्रमाण मान लेने में कोई हानि नहीं, तो यह कहना ठीक न होगा, क्यों कि तब उसी दृष्टान्त से उस तिथि के भोगकाल में और अन्य तिथियों की भी प्रवृत्ति आदि के विषय में टिप्पण के अप्रमाण होने की शंका होने से टिप्पण से विश्वास ही उठ जायगा और उस दशा में तिथि आदि के निर्णय का उपायान्तर न होने के कारण तिथिमूलक समस्त आराधनाओं का लोप होने लगेगा। इस पहले प्रकार में दूसरा दोष यह भी है कि पर्व के अव्यवहित उत्तर में आनेवाली पर्वतिथि के क्षय के प्रसंग में पूर्व पर्व-तिथि की उसके मुख्यकाल में आराधना न होने से उसकी विराधना का पाप भी होगा, यदि इस पर यह तर्क उपस्थित करें कि “क्षये पूर्वा” इस वचन के अनुसार क्षीण पर्व-तिथि के अव्यवहित पूर्व पर्व-तिथि का टिप्पणोक्त काल उसका मुख्य काल ही नहीं है किन्तु वह तो क्षीण उत्तर पर्वतिथि का ही मुख्यकाल है, उसका मुख्यकाल तो वह है जो टिप्पण में उसके पूर्व की अपर्व-तिथि का काल बताया गया है, इस लिये यह दोष तो नहीं ही सम्भव है, परन्तु यह तर्क भी अज्ञान का ही द्योतक है, क्यों कि यह कथा अपने अन्ध भक्तों के सामने ही सुनाई जा सकती है पर जो बुद्धि, विवेक और शास्त्रसम्मत बात का ही आदर करना जानते हैं, उन के समक्ष यह कथा तो कहने वाले को उपहासास्पद ही सिद्ध करेगी, कारण कि वह सोचेंगे कि तिथि के प्रवेशादि का काल बताना तो टिप्पण का ही कार्य है फिर उसके क्षेत्र में “क्षये पूर्वा" यह शास्त्र-वचन हस्त-क्षेप कैसे कर सकता है ? इसके साथ ही वह यह भी सोचेंगे कि इस प्रकार की कल्पना करना तभी उचित हो सकता है जब टिप्पण की प्रमाणता की अक्षुण्णता के साथ उक्त वचन से क्षीण पर्व-तिथि की आराधना का उपपादन न हो सके, अतः यदि टिप्पण तथा उक्त वचन इन दोनों की मर्यादा के रक्षण के साथ कोई व्यवस्था हो सकती है तो उक्त कल्पना को अवकाश नहीं प्राप्त हो सकता।
“तिथिश्च प्रातः प्रत्याख्यानवेलायां या स्यात् सा प्रमाणम्” जो तिथि जिस दिन सूर्योदय के समय होती है वही उस दिन सम्पर्ण अहोरात्र में व्याप्त होकर रहती है-यह पायापित वचन सर्व सम्मत है, अब यदि टिप्पण में क्षीण बताई गई पर्व-तिथि का सूर्योदय के समय अस्तित्व न माना जायगा तो उक्त वचन के अनुसार उस दिन पर्व-तिथि का अस्तित्व ही नहीं ૧૫
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