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66 पूजा पच्चक्खाणं पडिक्कमणं तह य नियमगहणं च । जीए उदेइ सूरो, तीइ तिहीए उ कायव्वं " ॥ २॥ " उदयंमि जा तिही सा पमाणमिअरीइ कीरमाणीए । आणाभंगणवत्थामिच्छत्तविराहणं पावे " ॥ ३॥ आदित्योदयवेलायां या स्तोकापि तिथिर्भवेत् । सा सम्पूर्णेति मन्तव्या प्रभूता नोदयं विना 11 8 11
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इन सब शास्त्रवचनों का आविष्कार हुआ और इनके द्वारा यह व्यवस्था हुई कि ऐसी तिथियां जिस दिन सूर्योदय काल का स्पर्श करती हों उसी दिन इनकी आराधना होनी चाहिये । पर्वतिथियों की आराधना का विधान करने वाले वचनों और आराधना में तिथि के औदयि कीत्व का अंगत्व एवं महत्त्व स्थापित करनेवाले वचनों की पारस्परिक एक वाक्यता करने से पर्व-तिथियों की आराधना के सम्बन्ध में जैनशास्त्रों का यह आदेश सम्पन्न हुआ कि " अष्टमी आदि समस्त पर्व तिथियों की आराधना उनसे स्पृष्ट सूर्योदय से आरब्ध होने वाले दिन करनी चाहिये । "
[ જૈન દૃષ્ટિએ તિથિનિ અને પર્વોરાધન–સંગ્રહવિભાગ
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अब जैनशास्त्रादेश के इस स्वरूप में ऐसी पर्व तिथियों को आराधना का लोप प्राप्त होता है जो सूर्योदय के बाद प्रवृत्त होकर दूसरे सूर्योदय के पहले ही समाप्त हो जाने से क्षीण कहलाती है । इस आराधना - लोप को स्वीकार नहीं किया जा सकता क्यों कि जैन- शास्त्रों ने समस्त पर्व तिथियों की आराधना का आदेश दे रखा है । इस लिये धर्म- लोप से डरनेवाले मनुष्य के मन में यह प्रश्न बरबस उठ पडता है कि इन क्षीण पर्व तिथियों की आराधना कैसे की जाय ? इसी प्रश्न के सन्ताप का निराकरण करने के लिये आचार्य उमास्वाति के मुखारविन्द से " क्षये पूर्वा तिथिः कार्या " यह वचन मकरन्द निर्गत हुआ, जिसे पाकर जैनजनमिलिन्दों का मानस उल्लसित हो उठा और विद्वानों को पांच प्रकारों से क्षीण पर्व तिथि की आराधना का उपपादन करने में इस वचन के उपयोग की सम्भावना दिखाई पडने लगी । वे पाँचो प्रकार यह हैं:
( १ ) पर्वतिथि के टिप्पणोक्त क्षय को स्वीकार न कर उस में सूर्योदयकाल में अस्तित्व रूप औदयिकीत्व को स्वीकार करना ।
(२) सूर्योदयकाल में अस्तित्व रूप औदयिकीत्व को छोड-जो तिथि जिस दिन समाप्त हो वह तिथि उस दिन औदयिकी होती है - इस पारिभाषिक औदयिकीत्व को आराधना का प्रयोजक मानना ।
(३) सूर्योदयकाल में अस्तित्व रूप औदयिकीत्व को सूर्योदयकाल में रहनेवाली तिथियों की आराधना का प्रयोजक मानना और उक्त पारिभाषिक औदयिकीत्व को क्षीण तिथियों की आराधना का प्रयोजक मानना ।
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( ४ ) औदयिक और अनौदयिक तिथियों का आपेक्षिक तादात्म्य मानना ।
(५) टिप्पण में जिस तिथि का औदयिकीत्व निर्दिष्ट उसे अनौदयिक पर्व तिथि का प्रतिनिधि मान लेना ।
इन प्रकारों में यदि प्रथम प्रकार माना जायगा तो " क्षये पूर्वा तिथिः कार्या ” इस वचन को सूर्योदय - काल से ही क्षीण तिथि की प्रवृत्ति का बोधक मानना होगा और उसकी व्याख्या इस प्रकार करनी होगी । क्षये-टिप्पण में पर्वतिथि के क्षय का निर्देश मिलने पर, पूर्वा - टिप्पण में औदयिकी रूप से निर्दिष्ट तिथि को, तिथि: - क्षीण पर्वतिथि-रूप, कार्या - बना देना चाहिये ।
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