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________________ ૧૨૦ [न दृष्टिय तिथिहिन भने पाराधन-संग्रविमा एक ही एक तिथि की समाप्ति होती है उन दिनों में तिथि की सत्ता न सिद्ध होगी। इस लिये अन्ततोगत्वा जिस दिन जो तिथि समाप्त हो उस दिन वह तिथि माननी चाहिये इस साधारण नियम को मान कर एक दिन दो तिथियों की समाप्ति होने पर उस दिन दो तिथियों की सत्ता माननी ही होगी। अब इस पर यह कुतर्क करना कि एक दिन दो तिथियों की समाप्ति और सत्ता के प्रतिपादन में तात्पर्य होने पर दो यत् और दो तत् शब्द का प्रयोग कर ऐसे वाक्य का विन्यास करना चाहिये कि जिससे यह अर्थ निर्गत हो कि जिस दिन जोजो तिथि समाप्त हो उस दिन वह वह तिथि स्वीकार करनी चाहिये, नितान्त अनुचित है क्यों कि ऐसा मानने पर एक ही तिथि की समाप्ति वाले दिनों में तिथि की सत्ता ही सिद्ध न होगी? ___ इसी प्रसंग में " किं किमप्यष्टम्या रहोवृत्त्या समर्पितं यन्नष्टाऽप्यष्टमी परावृत्त्याभिमन्यते, पाक्षिकेण च किमपराद्धं ? यत्तस्य नामापि न सह्यते” इस ग्रन्थ के " नष्टाऽप्यष्टमी परावृत्त्याभिमन्यते" इस भाग की श्रीसागरानन्दसूरि ने यह व्याख्या करने का उद्योग किया है कि क्षीण भी अष्टमी सप्तमी को हटा कर उसके स्थान में औदयिकी बन जाती है। यहाँ उनसे इस विषय में यह पूछना चाहिये कि “परावर्त्य" शब्द का " हटा कर" यह अर्थ तो होता है, यह सारा संस्कृत समाज जानता है, पर “परावृत्त्य" शब्द का भी " हटाकर" यह अर्थ होता है यह उन्हों ने कहाँ से सीखा ? और यदि णिच् प्रत्यय का अन्तर्भाव मानकर उस शब्द से उस अर्थ को प्रकट करने का अभिप्राय हो तो उन्हें बतलाना चाहिये कि वैसा मानने का आधार क्या है ? _इस लिये “परावृत्त्याभिमन्यते” इस वाक्य में “ परावृत्त्य अभिमन्यते " ऐसा पदच्छेद न मानकर “परावृत्त्या"-अभिमन्यते" ऐसा पदच्छेद मानना चाहिये, और “ परावृत्त्या" इस शब्द की "परस्याः वृत्त्या" ऐसी व्युत्पत्ति कर के उस पूरे वाक्य भाग का यह अर्थ करना चाहिये कि क्षीण अष्टमी के दिन अष्टमी सप्तमी की स्थिति के साथ रहती है, अथवा “परावृत्त्या" शब्द की "परस्मिन् अवृत्त्या" यह व्युत्पत्ति करके उस वाक्य-खण्ड की यह व्याख्या करनी चाहिये कि उत्तर दिन में सम्बन्ध न होने से अर्थात् पूर्व दिन में ही समाप्त हो जाने से पूर्व दिन में ही अर्थात सप्तमी के औदयिकीत्व वाले दिन को ही क्षीण अष्टमी-मानी जाती है। ऐसा अर्थ करने से उस पूरे वाक्य-समुदाय का भाव यह होगा कि जब क्षीण अष्टमी की सत्ता सप्तमी के दिन इसी आधार पर मानते हो कि अष्टमी उसी दिन समाप्त हो जाती है, उसके अगले दिन उसका सम्बन्ध नहीं होता, तो यह बताओ कि क्षीण चतुर्दशी ने ऐसा कौन सा अपराध किया है जिसके कारण उक्त आधार की समता होते हुए भी उसके (क्षीण चतुर्दशी के) सम्बन्ध में दूसरे प्रकार की कल्पना करते हो? अथवा ऐसा कल्पनामेद करने के लिये अष्टमी से कोई उत्कोच प्राप्त किया है ? __" खरतर" के मत का खण्डन करते हुये तत्त्वतरंगिणीकार ने यह प्रश्न उठाया है कि यदि आप पूर्णिमा में क्षीणचतुर्दशी का अनुष्ठान करेंगे तो उसे पूर्णिमा का अनुष्ठान कहेंगे या चतुर्दशी का, यदि चतुर्दशी का अनुष्ठान कहेंगे तो मिथ्या भाषण का दोष होगा क्यों कि पूर्णिमा के दिन चतुर्दशी है नहीं, और यदि उसे पूर्णिमा का अनुष्ठान कहेंगे तो चतुर्दशी के अनुष्ठान का लोप होगा । इस ग्रन्थ को देखने से ज्ञात होता है कि चतुर्दशी के अनुष्ठान में पूर्णिमा का अनुष्ठान अन्तर्भूत हो जाता है परन्तु पूर्णिमा के अनुष्ठान में चतुर्दशी का अनुष्ठान अन्तर्भूत नहीं होता । अन्यथा पूर्णिमा में क्रियमाण अनुष्ठान को चतुर्दशी का अनुष्ठान कहने पर पूर्णिमा के अनुष्ठान-लोप की भी बात ठीक वैसे ही कहनी चाहिये थी जैसे उसे पूर्णिमा का अनुष्ठान कहने पर चतुर्दशी के अनुष्ठानलोप की बात कही गई है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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