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[ જૈન દૃષ્ટિએ તિચિદ્દિન અને પર્વોરાધન–સંગ્રહવિભાગ टिप्पण के अनुसार सूर्योदय काल में विद्यमान त्रयोदशी का अत्यन्त लोप करने में तत्त्वतरंगिणीकार की सम्मति नहीं है ।
पताका के पन्द्रहवें पृष्ठ में चतुर्दशीक्षय के दिन चतुर्दशी का ही व्यवहार योग्य है त्रयोदशी का नहीं - इस बात का समर्थन " 'भूमाधिकरण " न्याय' से करने की चेष्टा की गई है । पर यह ठीक नहीं है, क्यों कि उक्त न्याय का अवसर तब हो सकता है जब चतुर्दशीक्षय के दिन त्रयोदशी के कुछ अंश और चतुर्दशी के अधिक अंश माने जायँ, पर पताकाकार की दृष्टि में उस दिन सूर्योदयकाल से ही चतुर्दशी हो जाने से त्रयोदशी का तो कुछ भी अंश नहीं रहता, फिर उनके मत से उक्त न्याय की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? यदि कहा जाय कि चतुर्दशी - क्षय दिन त्रयोदशी और चतुर्दशी दोनों के अंशो का अस्तित्व टिप्पणानुसार मानने के पक्ष में उक्त न्याय की प्रवृत्ति बताई गई है तो यह भी उचित नहीं है क्यों कि उस दशा में जब पहले दिन सूर्योदय के कुछ ही समय बाद चतुर्दशी आरम्भ होकर दूसरे सूर्योदय के थोडे समय बाद तक रहेगी तब " भूमाधिकरण" न्याय से पहले ही दिन चतुर्दशी का व्यवहार होगा न कि दूसरे दिन, फलतः चतुर्दशी अपने उदयस्पर्शी दिन में ही अव्यवहार्य हो जायगी।
पताका के सोलहवें पृष्ठ में कहा गया है कि टिप्पण लौकिक होने से " क्षये पूर्वा तिथिः कार्या" इस शास्त्रीय वचन की अपेक्षा दुर्बल है अतः पर्व तिथि के क्षय - दिनों में सूर्योदयकाल में टिप्पण द्वारा प्राप्त भी अपर्व - तिथि का अस्तित्व " क्षये पूर्वा" इत्यादि शास्त्रीय वचन से बाधित हो जाता है । इस पर हमारा कथन यह है कि उक्त बात दो ही स्थितियों में ठीक हो सकती है । एक तो तब जब प्रमाणान्तर से यह सिद्ध हो कि उक्त शास्त्रीय वचन चतुदेशी आदि पर्व तिथियों के क्षय के दिन त्रयोदशी आदि अपर्व तिथियों के सर्वथा अभाव का प्रतिपादन करता है अथवा टिप्पण से विरुद्ध अर्थ का प्रतिपादन करना अनिवार्य हो । प्रकृत में दोनों स्थितियों में से कोई भी नहीं है, क्यों कि अब तक एक भी ऐसा प्रमाण नहीं प्राप्त हो सका है जिसके अनुरोध से उक्त शास्त्रीय वचन को टिप्पण से विरुद्ध अर्थ का बोधक मानना पडे और न ऐसी कोई समस्या ही है जिसके कारण उक्त वचन को टिप्पण का विरोध करना पडे, रही बात चतुर्दशी आदि के क्षय दिन उसकी आराधना की, सो तो औदयिकी त्रयोदशी आदि के आपेक्षिक तादात्म्य-द्वारा औदयिकीत्व का लाभ मानने से भी हो सकती है। यह भी ध्यान देने की बात है कि यदि टिप्पण को " क्षये पूर्वा " इत्यादि वचन से बाध्य मान कर उसको पर्वतिथि की वृद्धि और क्षय के विषय में अप्रमाण घोषित करने का साहस किया जायगा तो यह आवश्यक होगा कि उसके मूलभूत गणित को ही अशुद्ध घोषित किया और तब इसका परिणाम यह होगा कि टिप्पण की अप्रमाणता कतिपय पर्व तिथियों तक ही सीमित न रह कर अन्य सारी तिथियों को भी अपने लपेट में ले लेगी क्यों कि गणिताशुद्धि की सम्भावना अन्य तिथियों के बारे में भी बनी रहेगी । फलतः अन्य तिथियों के भी प्रवेशादि के विषय में निश्चित रूप प्रमाण न हो सकने के कारण टिप्पण व्यर्थ हो जायगा, और तब " आनर्थक्यप्रतिहतानां विपरीतं बलाबलम् " - जिसकी अपेक्षा दुर्बल माने जाने से जो निरर्थक पडने लगता है वह उसकी अपेक्षा प्रबल हो जाता है - इस मीमांसान्याय के अनुसार टिप्पण ही उक्त शास्त्रीय वचन की अपेक्षा प्रबल होकर अपने विरुद्ध अर्थ का बोधन करने का अवसर उसे न देगा ।
जाय,
पताका के सत्रहवें पृष्ठ में कहा गया है कि टिप्पण अपने विषय में प्रमाण होने पर भी
१ देखिये मू० पु० पृ० सं०-३३
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