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________________ ८७ ૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અનિયિભાસ્કર ] उसी पृष्ठ की दशवीं पंक्ति में उदयकालके साथ सम्बन्ध न होने को अनौदयिकीत्व का जो निमित्त कहा गया है, वह भी संगत नहीं है, क्यों कि अनौदयिकीत्व शब्द का भी अर्थ उदयकाल के साथ सम्बन्ध न होना ही है, फिर उस एक ही वस्तु में निमित्तनैमित्तिकभाव, प्रयोज्य-प्रयोजक भाव वा ज्ञाप्यज्ञापकभाव कैसे हो सकता है ? उसी पृष्ठ की ग्यारहवीं पंक्ति में पूर्वात्व के विधेयतानवच्छेदकत्व में पूर्वामात्रनिष्ठता को हेतु कहा गया है, जो ठीक नहीं है, कारण कि पूर्वामात्रनिष्ठता पूर्वात्व को पूर्वागत विधेयता का अवच्छेदक होने के अनुकूल है । उसी स्थान में अष्टमीत्व के विधेयतानवच्छेदकत्व में अष्टमीत्व के विधान की अशक्यता गत पूर्वनिरूपितत्व को जो हेतु कहा गया है, वह भी असंगत है, क्योंकि उक्तनिरूपितत्व अष्टमीत्वगत होने से अष्टमीत्व में विधेयतानवच्छेदकत्वका गमक नहीं हो सकता । अष्टमीत्व विधान की पूर्वनिरूपित अशक्यता अथवा पूर्वनिरूपित अशक्यवि ता के हेतत्व के प्रतिपादन में भी "विधातमशक्यत्वस्य पूर्वमेव निरूपितत्वात्" इस वाक्य का तात्पर्य नहीं माना जा सकता कारण कि संख्या भिन्न सुविभक्त्यर्थ में प्रकृत्यर्थ ही के अन्वय का नियम होने से विधान की अशक्यता वा अशक्य विधानता में निरूपितत्व शब्द के उत्तरस्थ विभक्ति से हेतुता का लाभ अशक्य है । किसी प्रकार इस दोष के परिहार का उपाय ढूंढ निकालने पर भी अष्टमीत्व के विधान की अशक्यता वा विधानाशक्यता अष्टमीत्व की अविधेयता का हेतु हो सकने पर भी उसके विधेयतानवच्छेदकत्व का हेतु नहीं हो सकती है। दूसरी बात यह है कि पूर्वापद को विधेय का बोधक मानने पर पूर्व में विधेयता की प्राप्ति हो सकने से पूर्वात्व में प्रसक्त विधेयतावच्छेदकता का प्रतिषेध करना तो संगत हो सकता है, परन्तु अष्टमीत्व में विधेयतावच्छेदकता को प्रसक्ति न होने से उसका प्रतिषेध करना असंगत है । अष्टमी की मध्यस्थोक्त विधेयता की दृष्टि से भी इस प्रतिषेध का समर्थन नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस प्रतिषेध की चर्चा मध्यस्थोक्ति के आलोचन के प्रकरण में न आकर पताकाकार द्वारा "क्षये पूर्वा तिथिः कार्या" इस वचन के अर्थ निरूपण के प्रकरण में आई है। ___ उसी पृष्ठ की पन्द्रहवीं पंक्ति में पञ्चाङ्ग-प्राप्त क्षय को औदयिकीत्वाभाव का प्रयोजक 'कहा गया है जो कथमपि सम्भव नहीं है, क्योंकि पताकाकार ने क्षय शब्द का अर्थ औदयिकीत्वाभाव ही किया है और प्रयोज्य प्रयोजकभाव भिन्न वस्तुवों में ही मान्य है, पञ्चाङ्ग-प्राप्त क्षय को प्रयोजक न मानकर पञ्चाङ्गमूलक क्षयदर्शन को भी प्रयोजक नहीं माना जा सकता, क्यों कि क्षयदर्शन का अर्थ है क्षयज्ञान और ज्ञानविषय का प्रयोजक नहीं होता। क्षयदर्शन क्षयका प्रयोजक भले न हो शापक तो हो सकता है, फिर क्षयदर्शन को क्षयज्ञापक बताने में पताकाकार का तात्पर्य मान लेने से उक्त दोष न होगा यह कथन भी युक्त नहीं है, क्यों कि प्रयोज्यप्रयोजकभाव के समान शाप्यज्ञापकभाव भी भिन्ननिष्ठ ही होता है, अतः क्षयदर्शन क्षयशान का साधन नहीं बन सकता। ___ सबसे बडे कौतुक की बात तो यह है कि पताकाकार ने तिथि के अनौदयिकीत्व का प्रयोजक कहीं पर तो सूर्योदय के अनन्तर कालिक तिथिजन्म को, कहीं पर सूर्योदयकाल के साथ असम्बन्ध को और कहीं पर पञ्चाङ्ग-दृष्ट क्षय को कहा है, जिस से स्पष्ट ज्ञात होता है कि पताकाकार को अनौदयिकीत्व और उसके प्रयोजक का सम्यक् ज्ञान नहीं है। - उसी पृष्ठ की अठारहवीं पंक्ति में पताकाकार ने "क्षये दृष्टे सति" का "उदयसम्बन्धाभावे सति" यह जो विवरण दिया है उससे तो पदार्थों के सम्बन्ध में उनका महान् अज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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