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[ જૈન દૃષ્ટિએ તિથિરિન અને પરાધન-સંગ્રહવિભાગ सूचित होता है। क्यों कि योगाचार और उसके अनुचरों को छोड किसी ने भी ज्ञान और ज्ञेय की एकता नहीं मानी है, वस्तुतः तो उन सबों ने भी ज्ञान और ज्ञेय की एकता नहीं स्वीकार की है प्रत्युत ज्ञान को सहज साकार मानकर ज्ञेय की कल्पना के बीज को ही नष्ट कर दिया है। ___आठवें पृष्ठ में क्षय शब्द का औदयिकीत्वाभाव अर्थ मान कर फिर नवें पृष्ठ में उसी शब्द का 'क्षयः-व्यपदेशाभावः' ऐसा विवरण किया है, यह कार्य भी पताकाकार को पदार्थज्ञ के पद से प्रच्युत करने वाला है।
पताका के आठवें पृष्ठ में पताकाकार ने यह कहा है कि जैसे “तिसृम्यो हि करोति..." इत्यादि वचन से स्तोत्र में विनियुक्त होने वाली ऋचावों के क्रम के वैपरीत्य का विधान विष्टुति में होता है उसी प्रकार "क्षये पूर्वा तिथिः कार्या” इस वचन से अनौदयिकी अष्टमी आदि तिथि का औदयिकी और औदयिकी सप्तमी आदि का अनौदयिकी के रूप में विधान हो सकता है, परन्तु यह ठीक नहीं है, कारण कि “तिसृभ्यो हि करोति...” इत्यादि वाक्य में उत्तमा ऋक् को प्रथमा, प्रथमा को मध्यमा और मध्ममा को उत्तमा स्पष्ट रूपसे कहा गया है, पर.. "क्षये पूर्वा " इत्यादि वाक्य में अनौदयिकी को औदयिकी और औदयिकी को अनौदयिकी स्पष्टतया नहीं कहा गया है । इसके अतिरिक्त दृष्टान्त वाक्य और दार्टान्तिक वाक्य में वैषम्य भी है क्यों कि दृष्टान्तवाक्य ऋचावों के पौर्वापर्य को बदल देता है पर "क्षये पूर्वा" यह वाक्य पताकाकार के मत में भी पूर्वोत्तरतिथियों के पौर्वापर्य को नहीं बदलता।
पताकाकार ने पताका के आठवें पृष्ठ में "क्षये पूर्वा तिथिः कार्या” इस वचन के अपने दूसरे व्याख्यान को अंकित करते हुये 'पूर्वा' शब्द को उद्देश्य का और 'तिथि' शब्द को विधेय का बोधक बतला कर कहा है कि पञ्चाङ्ग में क्षीणरूप से कही हुई अष्टमी आदि पर्वतिथियों के जो अंश सप्तमी आदि पूर्वतिथियों में हैं उनका विधान इस वचन से नहीं होता किन्तु सूर्योदयकाल से लेकर अष्टमी आदि की प्रवृत्ति के पश्चाङ्ग कथित काल तक जो अंश नहीं हैं उन्हीं का उतने काल में विधान होता है, फलतः सप्तमी आदि के बदले अष्टमी आदि पर्वतिथियां औदयिक बन जाती हैं।
इस पर प्रश्न यह होता है कि यदि पञ्चाङ्गोदित काल ही को अष्टमी आदि तिथियों की प्रवृत्ति का काल माना जाय तो सप्तमी आदि तिथियों में अष्टमी आदि तिथियों के कतिपय अंशों का अस्तित्व बताना असंगत है क्योंकि बाद में प्रवृत्त होनेवाली तिथियों के अंश का पूर्वकाल में होना कथमपि सम्भव नहीं माना जा सकता और यदि जिस दिन सूर्योदयकाल में सप्तमी आदि तिथियों का सम्बन्ध पञ्चाङ्ग में वर्णित है उस दिन अष्टमी आदि तिथियों के ही अंशा का अस्तित्व बताने का अभिप्राय हो तो अष्टमी आदि के कुछ ही अंशों का अस्तित्व बताना ठीक नहीं होता क्यों कि उस दिन तो अष्टमी आदि के समस्त अंश विद्यमान हैं, और यदि यह कहा जाय कि जिस दिन अष्टमी आदि तिथियों का क्षय पञ्चाङ्ग ने बताया है उस दिन जैन शास्त्र की दृष्टि में अष्टमी आदि का सम्बन्ध सूर्योदय काल से ही है किन्तु पञ्चाङ्गोदित अष्टमी आदि के प्रवृत्तिकाल के पूर्वकाल में उसका सम्बन्ध शात नहीं है, अतः यह वचन उसी सम्बन्ध का शापक है, तो यह भी कथन ठीक नहीं है, क्यों कि उस स्थिति में अष्टमी आदि के वे अंश बोध्य हो सकेंगे विधेय नहीं । यदि यह भी स्वीकार कर लें तो इस प्रसङ्ग में प्राप्त होनेवाली मध्यस्थ की उक्ति का पताका के छठे पृष्ठ में किया गया खण्डन असंगत होगा क्यों कि मध्यस्थ के मत में भी ' अपूर्वविधि विधायक' शब्द का पूर्व अज्ञात अर्थ का शापक-रूप
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