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[ જૈન દૃષ્ટિએ તિયિદિન અને પૌરાધન-સંગ્રહવિભાગ उत्तरतिथि गत ही है, पञ्चाङ्ग ने भ्रमवश उसका निर्देश पूर्वतिथि में किया है, अतः उक्त वचन को पञ्चाङ्ग के विरुद्ध खड़ा होना आवश्यक और उचित है," तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि उक्त स्थिति में औदयिकीत्व के उत्तर तिथि में स्वतः सिद्ध होने के नाते इस वचन से उसका विधान मानना असंगत होगा । इसके ऊपर पताकाकार का यह कथन कि अन्य प्रकार से अज्ञात उक्त अर्थ का यह वचन बोधक है विधायक नहीं, यहां बोध्य ही विधेय और बोधक
विधायक रूप से विक्षित है, युक्त नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर इस प्रसंग में मध्यस्थ की इस उक्ति का कि औदयिक सप्तमी आदि तिथियों में प्रकारान्तर से अज्ञात आराधनोपयुक्त अष्टमी आदि पर्वतिथियों की सापेक्ष अभिन्नता ही इस वचन से बोध्य के माने में विधेय और यह वचन बोधक के माने में उसका विधायक है, खण्डन करना अनुचित होगा ।
इस प्रसंग में पताकाकार ने भाषा और पदार्थ सम्बन्धी अनेक अशुद्धियां की हैं जिनसे उनकी भारी असावधानता प्रकट होती है और 'शासनजयपताका ' का विद्वानों द्वारा हस्ताक्षरित होना भी रहस्यमय प्रतीत होता है । उदाहरणार्थ - " शासनजयपताका " के आठवें पृष्ठ की दूसरी पंक्ति में तिथि सामान्यरूपता को अपर्वतिथि का विशेषण कहा गया है । जो असंगत है, क्योंकि अपर्वतिथि शब्द का ही पर्वतिथि भिन्न तिथिरूप अर्थ होने से उस शब्द से ही तिथिरूपता का लाभ हो जाने के कारण तिथि सामान्यरूपता का भिन्न शब्द से प्रतिपादन व्यर्थ हो जाता है ।
उसी पृष्ठ की सातवीं पंक्ति में पताकाकार ने कहा है कि तत्तत् तिथि का क्षय अत्यन्ताभाव अथवा ध्वंस रूप नहीं है क्योंकि तत्तत् तिथि और तत्तत् तिथि का क्षय दोनों एक ही दिन होते हैं, परन्तु तत्तत् तिथि और उसका अत्यन्ताभाव वा क्षय - यह दोनों एक साथ नहीं रहते क्यों कि भाव और उसके संसर्गाभाव में सहानवस्थानलक्षण- एक आश्रय में न रहना रूपविरोध होता है । अतः क्षय को अत्यन्ताभाव व ध्वंस रूप मानने पर तत्तत् तिथि के क्षय के दिन तत्तत् तिथि का अस्तित्व न हो सकेगा, पताकाकार का यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि एक ही दिन एक भाग उस तिथि का और भागान्तर में उसके ध्वंस वा अत्यन्ताभाव का अस्तित्व होने में कोई विरोध नहीं है ।
उसी पृष्ठ की आठवीं पंक्ति में कहा गया है कि सूर्योदय के अनन्तर उत्पन्न होने से तिथि को औदयिकत्वाभाव होता है इससे वही - औदयिकीत्वाभाव ही क्षय शब्द का अर्थ है । यह बात भी ठीक नहीं है क्यों कि सूर्योदयानन्तर उत्पत्ति पश्चाद् भावी है और औदयिकी - त्वाभाव पूर्वभावी है, अतः किसी तिथि का सूर्योदयकाल के साथ सम्बन्धाभाव रूप औदयिकत्वाभाव सूर्योदयकाल में उस तिथिके अभाव से होता है और वह अभाव उस तिथि के सूर्योदय कालिक अनुत्पाद से होता है और उक्त अनुत्पाद सूर्योदय के पूर्व में उस तिथिके प्रवर्तक कारण समुदाय के अभाव से होता है । यही मानना उचित है क्योंकि सम्बन्ध के सम्बन्धिद्वतन्त्र होने के नाते उसके अभाव को भी सम्बन्धी के अभाव के अधीन होना ही उचित है । यदि कहें कि सूर्योदय के अनन्तर होने वाली उत्पत्ति को औदयिकीत्वाभाव का ज्ञापक कहा गया है । कारक नहीं, तो इससे भी दोषों से मुक्ति नहीं मिल सकती, क्योंकि सूर्योदय के अनन्तरकालिक उत्पत्ति को बताने वाले पञ्चाङ्ग से ही जब औदयिकीत्वाभाव ज्ञात हो जाता है तो कथित उत्पत्ति के द्वारा आनुमानिक रीति ग्रहण करने की कोई आवश्यकता नहीं । " स " शब्द से औदयिकीत्वाभाव का ग्रहण भी " स " के मूलभूत तत् शब्द की अभिधान मर्यादा के विरुद्ध है ।
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