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________________ ૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયના સમર્થક શ્રી અર્હત્તિથિભારકર ] ૮૫ अर्थ उद्देश्य और पूर्वतिथिगत औदयिकीत्व रूप पूर्वा शब्द का अर्थ विधेय हैं, इसलिये उक्त वचन का यह अर्थ होता है कि पञ्चांग में पर्व तिथि के क्षय का निर्देश होने पर उसमें पूर्वागत तिथि के औदयिकीत्व की भावना करनी चाहिये । " 23 इस सम्बन्ध में हमारा यह निवेदन है कि पताकाकार को उक्त वचन की अवतारणा समझने में भारी भूल हुई है, क्योंकि उन्होंने पहले लिखा है कि 'जैनसम्प्रदाय में औदयिक तिथि ही सब कार्यों में उपयुक्त मानी जाती है, इसलिये उन्हें सोचना चाहिये कि जब औदयिक तिथियों की ही आराधना का आदेश जैनशास्त्रों में प्राप्त होता है तो जो पर्वतिथियां पञ्चांग में क्षीण बताई गयी हैं उनकी आराधना न करने पर भी जैनशास्त्र के आदेश का भङ्ग तो होता नहीं फिर “उन तिथियों की आराधना कैसे हो " इस प्रश्न के उठने का कोई अवसर न होने से उन्हें उक्त वचन द्वारा औदयिकी एवं आराधना योग्य बनाने की आवश्यकता ही क्या है ? यदि यह कहा जाय कि पताकाकार को जिस पक्ष का समर्थन करना है उस पक्ष को पर्वतिथियों का वास्तविक क्षय मान्य ही नहीं है अतः जैनशास्त्रों से सभी पर्वतिथियों की आराधना का आदेश प्राप्त होता है, परन्तु प्रचलित पञ्चाङ्ग में कतिपय पर्वतिथियों के क्षय का निर्देश होने से " उन तिथियों की आराधना कैसे हो " यह प्रश्न अनिवार्य रूप से खडा हो जाता है, अतः उन तिथियों की उक्त वचन द्वारा औदयिकी बनाकर आराधना योग्य बनाना आवश्यक है, तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि " क्षये पूर्वा " इस वचन को छोड़ कर अन्य कोई ऐसा आधार नहीं है जिससे यह प्रमाणित किया जा सके कि पर्वतिथियों का क्षय नहीं होता, और न इस वचन को ही किसी प्रामाणिक जैनग्रन्थ में पर्वतिथियों के क्षयाभाव का बोधक माना गया है, इसलिये कतिपय पर्वतिथियों के क्षय का निर्देश करनेवाले लौकिक पञ्चाङ्ग को तिथिनिर्णय के लिये ग्रहण करते हुये तथा औदयिक पर्वतिथियों की ही आराधना कों जैनशास्त्रसम्मत मानते हुये यह नहीं कहा जा सकता कि “ क्षये पूर्वा" इस वचन की प्रवृत्ति के पूर्व भी सभी पर्वतिथियों को आराधना का आदेश करने में जैनशास्त्रों का तात्पर्य - निश्चय शक्य है । अतः यह स्पष्ट है कि " क्षीण पर्वतिथियों की आराधना कैसे हो " इस प्रश्न के उत्थान एवं उसके उत्तर में उक्त वचन के उपयोग का समर्थन पताकाकार की ओर से नहीं किया जा सकता । पताकाकार ने उक्त वचन की जो पहली व्याख्या की है उसके बारे में हमारा यह वक्तव्य है कि " क्षये पूर्वा तिथिः कार्या ” इस वचन में तिथि शब्द को उद्देश्य का बोधक मानना अयुक्त है क्योंकि " उद्देश्यबोधक पद का प्रयोग विधेयबोधक पद के पूर्व होना चाहिये " इस सामान्य नियम का प्रकारान्तर सम्भव रहते परित्याग करना अन्याय है, तिथि शब्द का तिथि सामान्य रूप अर्थ छोडकर पर्वतिथि मात्र अर्थ करना भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा करने का कोई उचित आधार नहीं है, प्रकरण शब्द से जिस आधार की सूचना की गई है वह पताकाकार को भी ज्ञात नहीं है, यदि इस प्रकार का कोई प्रकरण उन्हें ज्ञात होता तो उसका स्पष्ट निर्देश उन्होंने अवश्य किया होता । पूर्वतिथिगत औदयिकीत्व का उत्तर तिथि में विधान मानना भी महान् भ्रम है क्योंकि एक तिथि में उदयकाल - सम्बन्ध रूप जो औदयिकीत्व है वह दूसरी तिथि में सम्भव नहीं है कारण कि वह सम्बन्ध कोई अनुगत अतिरिक्त वस्तु नहीं है प्रत्युत स्वरूपसम्बन्धविशेष है, यदि यह कहा जाय कि “ पूर्वतिथि में पञ्चाङ्गद्वारा जो औदयिकीत्व निर्दिष्ट है वह वस्तुतः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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