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________________ [ જૈન દૃષ્ટિએ તિયિદિન અને પરાધન-સંગ્રહવિભાગ अर्हत्तिथिभास्कर का राष्ट्रभाषा हिन्दी में অর্থ-সন্ধায় "शासनजयपताका" के रचयिता ने उसके दूसरे पृष्ठ में लिखा है कि “क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" यह वचन, जिसके आधार पर क्षीण और वृद्ध पर्वतिथियों की राधना का क्रम जैनसमाज में चिरकाल से प्रचलित है, आचार्य उमास्वाति की कृति नहीं है किन्तु यह वैदिक सम्प्रदाय से लिया गया है। ____ इस सम्बन्ध में हमारा वक्तव्य यह है कि उक्त वचन आचार्य उमास्वाति की रचना है मध्यस्थ का यह कथन ही सत्य है क्योंकि वैदिक सम्प्रदाय के ग्रन्थों में इसकी समानता का जो वचन मिलता है उसके पदों की आनुपूर्वी से इस वचन के पदों की आनुपूर्वी भिन्न है, उसके वैदिकसम्प्रदायसम्मत अर्थ से इसका जैनसम्प्रदाय-सम्मत अर्थ भी भिन्न है इसके अतिरिक्त यह जैनसंसार में उमास्वातिकी निजी रचना के रूप में ही प्रसिद्ध है तथा उसके रचयिता की परीक्षा प्रकृत में अप्रासंगिक भी है, एवं इसे जैनेतर की रचना बताना प्रस्तुत विचार के प्रतिकूल भी है। अतः इस वचन के रचयिता के बारे में जो चर्चा शासनजयपताकाकार ने की है वह उन्हें परिहासास्पद बनाती है। "शासनजयपताका" के ३ से ५ पृष्ठ तक के भागों में "क्षये पूर्वा तिथिः कार्या" यह वचन सप्तमी आदि पूर्व तिथियों में अष्टमी आदि क्षीणपर्वतिथियों का विधान करता है-इस बात को मध्यस्थ का कथन मानकर उसका खण्डन करने की चेष्टा की गई है जो अत्यन्त अनुचित तथा व्यर्थ है क्यों कि मध्यस्थ ने यह कहा ही नहीं है कि "क्षये पूर्वो” इत्यादि वचन सप्तमी को अष्टमी बनाता है अथवा पुरुष को सप्तमी को अष्टमी बनाने का आदेश देता है, उनका तो स्पष्ट आशय यह है कि उक्त वचन पूर्व की सप्तमी आदि औदयिक तिथियों में अष्टमी आदि क्षीण पर्व तिथियों की आपेक्षिक अभिन्नता का प्रतिपादन करता है जो कि "स्याद्वाद” की पद्धति से नितान्त सम्भव तथा क्षीण पर्व तिथियों की आराधना की उपपत्ति के लिये अत्यन्त आवश्यक भी है। ऐसा मानने में ज्योतिष शास्त्र की ओर से कोई आपत्ति भी नहीं है क्योंकि ज्योतिष में सप्तमी की सापेक्षा अष्टमीरूपता के विरुद्ध कहीं कुछ उल्लेख नहीं है और यह वचन भी सप्तमी के सप्तमीत्व वा अष्टमीभिन्नता का कोई विरोध नहीं करता। परन्तु उक्त वचन का पताकाकार-सम्मत अर्थ स्वीकार करने पर ज्योतिष का विरोध अवश्य होता है क्योंकि उनके मतानुसार उक्त वचन सप्तमी के पञ्चाङ्ग-वर्णित औदयिकीत्व का निषेध और अष्टमी के पञ्चाङ्ग-विरुद्ध औदयिकीत्व का अस्तित्व वर्णन करता है। पताकाकार ने "शासनजयपताका" के सातवें पृष्ठ में "क्षये पूर्वा तिथिः कार्या" इस वचन का अवतरण-बीज बताकर उसकी दो व्याख्यायें प्रस्तुत की है, पहली व्याख्या अङ्कित करते हुये उन्होंने कहा है कि “ उक्त वचन में तिथि शब्द का प्रकरण प्राप्त पर्वतिथि रूप For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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