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________________ ३३८ [ दृष्टि तिथिहिन भने पान... अप्रामाण्यसिद्धत्वं के उल्लेखों का भी निष्पक्ष पंडितजन यथार्थवादी मानते, क्यों कि जब किसी अर्थ के समर्थन में कोई शास्त्र उपस्थित किया जाता है और उस शास्त्र के यथास्थित अर्थ से विपरीत अर्थ का ही उस शास्त्र के द्वारा समर्थन करने का प्रयत्न किया जाता है तब वह शास्त्र अपने यथास्थित अर्थ के विषय में प्रमाण होने पर भी, विपरीत अर्थ के विषय में शास्त्राभास पद को ही पाता है । एवं प्रमाणभूत शास्त्रों के अर्थ से असंगत तथा विरूद्ध अर्थ के प्रतिपादन करने वाले तथैव अज्ञातकर्तृत्वयुक्त ग्रन्थों के द्वारा प्रमाणभूत शास्त्रों के कथन के विषय में विपर्यास पैदा करने का प्रयत्न किया जाय, तब वैसे ग्रन्थों को अप्रमाण बता देना, भी मध्यस्थ का परमावश्यक कर्तव्य ही है। इस समय हमारा शारीरिक स्वास्थ्य वैसा नहीं है जैसा कि सं० २००२ में था । हम अब वृद्ध भी हो चुके हैं । इसी कारण हम अभी निवृत्त जीवन जी रहे हैं। यदि ऐसा न होता तो हम इस विषय को बहुत ही विशद रूप में पाठकों के समक्ष उपस्थित करते और शास्त्रवचनों तथा प्रमाणोपेत युक्तियों से हम पाठकों के दिल को प्रसन्न कर देने के साथ यह भी बतला देते कि जैनाचार्य श्रीमत्सागरानन्दसूरिजी ने तिथिवृद्धिक्षय के विषय में जो मत प्रगट किया है, वह मत प्राचीन प्रमाणभूत जैन शास्त्राधारों से एवं श्रीजिनागमसम्मत जी व्यवहार से भी अनाचारणीय पद को ही पाता है । हमारा शारीरिक दुर्बलत्व हमको ऐसा करने में बाधित करता है इस बात का हमारे दिल में भारी दुःख है, परन्तु हमारे समक्ष पहिले उभयपक्षीय जैन शास्त्रप्रमाणों आदि अनुपस्थित होने से और एकपक्षीय कथन से विश्वास में आ जाने से हमने 'श्रीशासनजयपताका' के नाम से प्रकाशित 'तिथिवृद्धिक्षयव्यवस्थापत्रम् ' में जो कुछ लिखा था, उसके सम्बन्ध में उभय पक्षीय जैन शास्त्राप्रमाग आदि को देखने के बाद और उन सबका अनुशीलन करने के बाद हम सत्य निर्णय को प्रगट करने का मौका पाये हुआ हैं इस बात का हमारे दिल में इस समय भारी आनन्द भी है। ___'जैन दृष्टिए तिथिदिन अने पर्वाराधन ' नामक पुस्तक में उभयपक्षीय जैन शास्त्रप्रमाणादि प्रगट किये गये हैं । उन सब के निष्पक्ष अबलोकन और अनुशीलन से विद्वान् पाठकों का अभिप्राय भी इस निवेदन में प्रकाशित हमारे अभिप्राय के अनुरूप ही होगा, ऐसा हमें पूरा विश्वाम है । इति शुभं भवतु । भागीरथी चिन्नस्वामी शास्त्री १७ हनुमानघाट महामहोपाध्याय बनारस २८-९-१९५५ ई. शास्त्ररत्नाकर काशी वै. सं. २०१२ द्वितीय भाद्रपद शुक्ला द्वादशी, बुधवार व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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