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________________ (३४) मत मंदिराके पानमें मतवाले समजै न॥ शुद्ध उपयोग ने समताधारी, ज्ञानध्यान मनोहारी। कमे कलंककु दूर निवारी, जीव वरे शिवनारी ॥ जब लग तेरा पुण्यका, पहूचे नहि करार । तबलग तुमको माफ है, अवगुण करो हजार ॥ पुण्य पुरा जब होत है, उदय होत है पाप । दाझे वनकी लाकडी, प्रगटे आपोआप ॥ जिन समरो, जिन चितवो, जिन ध्यावो मन शुद्ध । क्षणमा पामो परम पद, थइ पोते प्रतिबुद्ध ॥ देह गेह धन धान्य ते, पर, जड, पुदल जाण । ज्ञाता दृष्टा आप तुं, चेतन सुख गुण खाण ॥ तुलसी हाय गरीवकी कबून खाली जाय । मुवा ढोरके चामसे, लोह भस्म हो जाय ॥ मन मावत, तन चंचल हस्ति, मस्ती है बलकी। सद्गुरु अंकुश धरो शिरपर, चल मारग सतकी । ज्ञानविना व्यवहारको, कहां बनावत वाच ।। रत्न कहो का काचको, अंत काच सो काच ॥ अंतर लक्ष रहित ते अंध, जानत नाह मोक्ष अरु बंध ॥ दुःखमे सब को प्रभु भजे, सुखमे भजे न कोय । जो मुखमे प्रभुकु भजे, तो दुःख कहांसे होय ॥ कथनी कथे सब कोय, रहणी अति दुर्लभ होय । कथनी साकर सम मीठी, रहिणी अति लागे अनिठी ॥ जननी जणजे भक्त का, का दाता, का शूर । नाहि तो रहेजे वांझणी, मत गुमावै नूर ॥ चालना जरूर जाकु, ताकु कैसा सोवना ॥ बूरा बूरा सब कहे, बूरा न दिसे कोय । जो घट शोधु आपणो, तो मुजसे बूरा न कोय ॥ Let us be then up and doing, With a heart for any fate; Still achieving, still pursuing, Learn to labour and to wait. Example is better than precept. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005585
Book TitleTriji Jain Shwetambar Conferenceno Report
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Chunilal Vaidya
PublisherReception Committee
Publication Year1906
Total Pages266
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size23 MB
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