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वाचना के दौरान आचार्य द्वय ने परस्पर गहन विचार कर तथा सभी आचार्यों के मत मतान्तर से अवगत हो, भावी गति का अनुमान लगा कर समग्र आगम साहित्य को पुस्तकारोहन करवाने के रूप में यह वाचना सम्पन्न करवाई। सर्व प्रथम इसी वाचना में जैन आगम साहित्य को ग्रंथ रूप में आलेखित कर सदा के लिए अमर बना दिया । उस समय पूरा साहित्य २४ आगम ग्रंथों के रूप में विभाजित कर संकलित किया गया ।
यह कोई वीर निर्वाण संवत ९८० के समय में सम्पन्न हई । आचार्य श्री देवदिगणि क्षमाश्रमण ने आचार्य श्री लोहित्यसरिजी म. के चरणों में दीक्षा ग्रहण की । उन्होंने गुरु सान्निध्य में अध्ययन कर गणि पद प्राप्त किया और उपकेशगच्छीय आचार्य श्री देवगुप्त सूरिजी महाराज साहब के पास एक पूर्व अर्थ से' तथा 'दूसरा पूर्व सूत्र से' का ज्ञान संपादन कर क्षमाश्रमण का पद प्राप्त किया था । देवदिगणि क्षमाश्रमण का स्वर्गवास वीर निर्वाण संवत १००० में श्री शत्रुजयगिरि पर हुआ ।
उनके स्वर्गवास के कुछ ही समय बाद अन्तिम पूर्वधर युगप्रधान आचार्य श्री सत्यमित्र का भी स्वर्गवास हो गया । इसी कारणवश जैन परम्परा में वीर निर्वाण संवत् १००० के कालखण्ड से पूर्व ज्ञान का विच्छेद माना जाता है |
नंदिसूत्र की थेरावलि से ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य श्री देवगिणि क्षमाश्रमण पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामी के अनन्तर पच्चीसवें वाचनाचार्य थे ।
आचार्य श्री नागार्जुनसूरिजी की पट्ट परम्परा में होनेवाले तथा छठी वाचना में आचार्य श्री देवगिणि क्षमाश्रमण के सहायक पूज्य आचार्य श्री कालकसूरिजी म.सा. चोथे कालकाचार्य थे | उनका युगप्रधान काल वीर निर्वाण संवत् ९४३ से ९९४ का माना जाता है । इन्हीं आचार्यदेव ने वीर निर्वाण संवत् ९९३ में आनंदपुर में राजा ध्रुवसेन की राजसभा में उनके पुत्र के शोक निवारण हेतु श्री संघ समक्ष श्री कल्पसूत्र पढ़कर श्रवण करवाया था । तभी से कल्पसूत्र श्रवण की परम्परा आज तक निर्बाध रूप से चल रही है | आपकी पाट पर द्वितीय उदय के आठवे युगप्रधान एवम् अन्तिम पूर्वधर भी सत्यमित्रसूरिजी महाराज हए । वे अन्तिम पूर्वधर होने के साथ वाचकवंश के अन्तिम वाचनाचार्य भी थे । इनके बाद वाचकवंश लगभग समाप्त ही हो गया ।
भगवान महावीर देव के शासन में उनकी वाणी रूप जिनागम साहित्य को सुरक्षित रखने हेतु प्राचीन काल में कुल छह आगमवाचनाएँ
વૈરના વળામણા-આગમ
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