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जो इसके पदार्थो को भगवान् से भिन्न धारण करे ! लघुता को छोडकर दीर्घता का मानकर इसमें ममता करता है, शरीर में अनुसरण करें। अपर को त्याग कर परम क्षुद्र अहं बुद्धिका आरोप करता है, वह पंतित पुरुष को देखें। हो जाता है।
छप्पय ___ संसार और काई बन्धन नही । सत्य
स्वप्न माहिं ज्यों पुरुष स्वयम् को सत्य का स्वरुप न मानकर उसमें अन्यथा
ही सब बनि जाव । बुद्धि करके मोह करता है वह बधता है।
त्यों परमात्मा बुद्धिवृत्ति अनुभवहिं रखा। माह का क्षय होने से उसी की मेक्षि बीज वृक्ष बनि जायें न पुनि वे बीज लखावै। संज्ञा है। बस, इतना ही कह कर और त्यों हरि ई जग बने विविधिरुपनि दरसाये।। एक छप्पय लिख कर इस भूमिका को समाप्त अधः पतन आसक्तिते, बनें करता हूं तथा अन्त में परम पिता परमात्मा
___जंगत हरि माह तनि । के पाद पद्मों में प्रार्थना करता हूं, कि सत स्वरूप आनंदनिधि, .. सभी लोग क्षुद्रता को छोडकर विशालता को
तारौं सब तजि प्रभुहिं भजि ॥
अपनी बात मानव की बुद्धि की सीमायें काफी पर्याप्त होने पर भी भौतिकवाद के उन्माद में कभी कभी मानव आपको प्रकृति के सनातन सत्यों का मार्मिक ज्ञाता बनने का दावा करता है।
- वर्तमान युग में विज्ञानवाद की चकाचौंध में समझदारी-विचारशीलता पर कुछ आवरण आ जाने से मानव, की धूमिती धारणाएँ पनप कर मानव के प्राकृतिक विकास को अवरोघ पहुंचा रही है ।
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