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________________ शिष्य पू० प० मुनिराज श्री अभयसागरजी (1) वैज्ञानिकों का कथन है किगणी ने अपने मननीय विचार 40 वर्षों के एपोलो सैटर्न 5 राकेट के बक्के से ऊपर संशोधन के बाद जनता की समक्ष प्रस्तुत 190 मील पहुंचकर पृथ्वी की दो प्रदक्षिणा करना शुरु किया है। करने के बाद 'स्पेस रिसर्च सेन्टर' (केपके- उनके द्वारा प्रतिपादित पृथ्वी के गोला- नेडी) में बैठे हुए कन्ट्रोलरों के बटन दबाने कार के खण्डन और गतिशीलता के घट के परिणाम स्वरुप एपोलो का मुंह चन्द्रमा स्फोट की तरह अपोलो यान 11 की चन्द्र की ओर तिरछा हुआ और इस (पूर्व) दिशा यात्रा का रहस्य-भेदन भी लोकप्रिय बन में 2,30,000 मील दूर गया । गया है। यहां समझना यह है कि पृथ्वी से ऊंचाई .. इस दिशा में मुनि श्री ने अपने विचार तो केवल 190 मील की ही है, पृथ्वी से अनेक रुप में अभिव्यक्त किये हैं। दूरी 2,30,000 मील की है, किन्तु ऊंचाई __ 'एपोलो 11 चन्द्रमा पर नहीं पहुंचा' 190 मील से अधिक नहीं है, इसीलिये इस सम्बन्ध में आपने कई प्राचीन एवं एपोलो 11 को चन्द्र पर उतरते समय नीचे अर्वाचीन विज्ञानाचार्यों से परामर्श भी की ओर उतरना पड़ा। किया है। इनकी दृष्टि से वस्तुतः चन्द्र आकाशीय पिण्ड है और एपोलो 11 पृथ्वी से लगभग ढाई लाख हमारे जगत से 31 लाख 68 हजार मील मील दूर जाकर किसी अज्ञात प्रदेश में उतरा उंचा है, वहां पहुंचने के लिये एपोलो कोवह चन्द्र पर नहीं पहुंचा है।" सतत ऊर्ध्व-गमन करना आवश्यक था । - इस कथन की पुष्टि के लिये मुनिराज ने इससे स्पष्ट होता है कि एपोलो पृथ्वी निम्न महत्वपूर्ण शोध तथ्य प्रस्तुत किये हैं, से तिरछा गया है, ऊपर नहीं । जो आन हर बुद्धिजीवी व्यक्ति के लिये मनन 'भरतक्षेत्र' का नाप पूर्व पश्चिम, 5,20, योग्य हैं। 96,547 मील है, और उत्तर दक्षिण 18,94, - मुनिराज ने अपने तर्क सन् 1968 जुलाई 736 मील हैं। में 'केपकेनेडी' (नासा) अमेरिका के पास भी भेजे है, जिनका प्रत्युत्तर अभी तक उपरोक्त उसमें भी हम जहां हैं वह मध्य खण्ड संस्था ने नहीं दिया है, जिसने कि चांद पर भी पूर्व पश्चिम 10,80,000 मील और उत्तर. एपोलो यान मानव सहित चन्द्र पर भेजने दक्षिण 8,57,368 मील का है। का दावा किया है। __'मध्य खण्ड के मध्य केन्द्र से दक्षिण ___ मुनिराज ने एपोलो यान 11 एव' 12 पश्चिम के बीच वाले (नैऋत्य कोण) 3,70,000 चन्द्रमा पर नहीं पहुंचा है, इस कथन की मील दूर 6,000 मील के व्यास बाले प्रदेश पुष्टि के लिये निम्न तर्क उपस्थित किये हैं:- पर हम रहते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005570
Book TitleJambudwip Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages202
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size5 MB
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