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दो गाथाओं में भी 'लोकविभाग' और 'लोक व्युच्छित्ति' का उल्लेख मिलता है
जोरी
बहल तं मण्णते
सव्वाणं,
रुदमाण सारिच्छ ।
एवं
पणासाधिय दुसया
लोग विभागस्स आइरिया ||११५ ||
कोंडा राहुण बहलत्त ।
विछिय
कत्ताइरिया परुवेदि ॥२०३॥
ये दोनों गाथा पाठांतर है जिनमें अन्य ग्रन्थों के मत दिये गये है । ये कहाँ है ?
ग्रन्थ
'लोकप्रकाश' श्वेताम्बर ग्रन्थ के पत्र २८८ में भी इस विषय के 'कर्म' प्रकृत्यादि' नामक दिगम्बर- ग्रन्थ तथा 'करणविभावना' ग्रन्थ, एवं पूर्वाचार्यो की कितनी ही गाथाओ का उल्लेख है । इत्यादि ग्रन्थ न जाने किस कालकोठरी में अपनी आयु समाप्त कर रहे हैं ।
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इस तरह एतद्विषयक बहुतेरा लुप्त प्रायः भी हुआ है और हो रहा है ।
इसके अलावा जैन भूगोल का ठीक ठीक ज्ञान न होने का भी कारण है ।
कई शताब्दियों पहिले ही से यह विषय बहुत कुछ विच्छेद हो चुका था । इस विषय के जो ग्रन्थ आज मिल रहे हैं उनके कर्ताओ के वक्त ही कोई इसका पूर्णज्ञानी न रहा था । यह आपको निम्न अवतरणों से मालूम होगा ।
" त्रिलोकप्रज्ञप्ति में लिखा है किसंपइ कालवसेणं ताराणामाण
त्थि वदेसो ||३२||
परिही ते व ते ताणं कणयाचलस्स विच्चाल । अपि पुव्वभणिदकालवसादो
पणठ्ठ उवएस ||४५७||
ताणं णामप्पहूदी उवएसो संपइ पणट्टो ||४९४ || - ज्योतिर्लोकाधिकार
अर्थ - " कालवश से ताराओं के नामों का उपदेश वर्तमान में नहीं रहा है । ग्रहों की परिधिये, उनका मेरु से अंतराल तथा अन्य भी पहिले सूर्य-चन्द्र का कहा हुआ जैसा कथन है, यह सब उपदेश कालवश से नष्ट हो गया है । उन ताराओं के नामप्रभृतिका उपदेश वर्तमान में नष्ट हो गया हैं । "
श्वेताम्बरों' के 'लोकप्रकाश' नामक ग्रन्थ के २८८ वें पत्र में भी लिखा हैं किनंतर क्षेत्रात्सूर्य चन्द्राः कथं स्थिताः । तदागमेषु गदितं साम्प्रतं नोपलभ्यते ॥
अर्थ - मनुष्यक्षेत्र के आगे सूर्य-चन्द्रमा किस तरह स्थित है ? तत्प्रतिपादक आगम इस समय उपलब्ध नहीं है ।
इसी ग्रन्थ " तत्तु संप्रदायगभ्य" "तन्तु बहुश्रुतगम्य' 'वेत्ति तत्त्व तु केवली' इस प्रकार के शब्दों से कितनी ही जगह एतद्विषयक ज्ञान की कमी जाहिर की है ।
ये सब अवतरण इस बात को सूचित करते हैं कि उस समय भी ज्योतिर्लोक की
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