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इस प्रकार जड़ एवं चेतन सृष्टि विक- नारदीय सूक्त (ऋग्वेद १०/१२९) के सित होती चली जाती है ।
___ अनुसार सृष्टि-पूर्व में न तो सत् था, न - इस सृष्टि का आदिम विश्वकर्मा पर- असत् था, न ही व्योम और न ही रज मात्मा ही है। विराट-स्वरूप के विभिन्न (परमाणु) थे । अवयव ही प्रकृति के विभिन्न उपादानों के इस कारण न तो मृत्यु ही थीं और न कारणभूत हैं।
अनश्वरता ही थी। न दिवस ___इन समस्त चिन्तन-बिन्दुओं को प्रकट ही रात्रि थी। बिना प्राण (श्वास-प्रश्वास) के करने के लिये वैदिक-मनीषिको ने प्राकृतिक परमात्मा स्वयं में अपनी शक्ति द्वारा सूक्ष्म एवं भौगोलिक आधारोंका सहारा लिया है। प्रकृतिको धारण किये हुए था :
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।। किमानरीवः कुह कस्य शमन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम् ॥शा न मृत्युरासीदमृत न तर्हि न राज्यां अह्व आसीत्प्रकेतः ।
आनीदवात स्वधया तदेक तस्मादान्यत्र परः किं चनास ॥२॥. .. ऐसी स्थिति में जब परमात्माके मन से ज्ञानमय सत्य (कृतम् ) एवं जगत अर्थात् संकल्प हुआ और इस प्रकार सृष्टि-संतति व्यवहारमय सत्य (सत्यम्) की सर्जना की। को उत्पन्न करनेवाला रेतस उसका मन ही इनसे प्रलयकाल की अंधकार भरी रात्रि था :
उत्पन्न हुई। - कामस्तदने समवर्तताधि
___ इस रात्रि के अंधकार को भेदते हुए मनसो रेतः प्रथम यदासीत् । उस से ही परमाणुओं का समुद्र अन्तरिक्ष
इस वीर्य को अपने स्वर्णिम-गर्भ में धारण प्रकट हुआ । करनेवाला भी वही था जिसने सूक्ष्म प्रकृति
अब काल की सृष्टि होने लगी। सूर्य को स्थूल रूप प्रदान किया :- .
का प्राकट्य होते ही संवत्सर, दिन व रात हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे
प्रारंभ हुए । पूर्व की सृष्टि की भांति ही भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । सूर्य, चन्द्र, धुलोक, पृथिवी लोक, अन्तरिक्ष स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां
एवं स्वः प्रकट हुए। कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥१०/१२॥ वैदिक साहित्य में भूः, भुवः, स्वः, महः,
जिस दैविक-शक्ति से परमात्मा पूर्व ही जनः, तपः एवं सत्य ऐसे सात लोकों की की भांति ऐसा सब कुछ कर पाया, वह चर्चा आई है । तपस शक्ति थी (१०/२७/३)
इस प्रकार सृष्टि एवं सृष्टि के नियम प्रारम • यइ तपस ही उसकी ज्ञान-शक्ति थी हुए:जिसने सारी गुह्यता (तमस्) को भेदकर कूज च सत्य चा- ...
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