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है । अतः एक वर्ष में १८२४२+२-३६६ बौद्धग्रन्थ 'अंगुत्तर निकाय' से भी ज्ञात दिन होते हैं।
होता है कि पृथ्वी के नीचे महावायु के (6) स्वगीय ५० गोपालप्रसाद जी बरया प्रकम्पन से (तथा अन्य कारणों से) भूकम्प जी ने अपनी पुस्तक 'जैन ज्याग्राफी' पुस्तक होता है४ । में लिखा है :___"चतुर्थ काल के आदि में इस आर्य (ग) पृथ्वी में परिवर्तन विज्ञान-सम्मत खण्ड में उपसागर की उत्पत्ति होती है। आज के भूगर्भ-मौज्ञानिक इस पृथ्वी के ये क्रम से चारों तरफ फेलकर आर्य खण्ड अतीत को जानने की जो चेष्टा कर रहे हैं, के बहुभाग को रोक लेता है । बर्तमान के वह अतीत की सही जानकारी प्राप्त करने एशिया, यूरोप, आफ्रीका और आस्ट्रेलिया-ये में कितनी सफल होगी, वह तो ज्ञात नहीं पांचों महाद्वीप इसी आर्य खण्ड में हैं। किन्तु इतना तो अवश्य है कि पृथ्वी के उपसागर ने चारों ओर फेल कर ही इनको महाद्वीप और महासागर आजकल जिस आकार द्वीपाकार बना दिया है ।"
प्रकार के है, उनका वही आकार-प्रकार (६) इसके अतिरिक्त, भूकम्प आदि सुदूर-अतीत में नहीं था और भविष्य में कारणों से भी, प्राकृतिक परिवर्तन होते हैं, भी नहीं रहेगा । जैज्ञानिकों ने स्वीकार जिनसे. नदियां अपनी धारा की दिशा बदल किया है कि सभी महाद्वीप कम या देती हैं, और पर्वतों की उंचाई भी बढ अधिक गति से निरन्तर खिसकते रहे हैं । जाती है । 'भूगोल' एक पौद्गलिक घटना उसकी अधिकतम गति प्रतिवर्ष चार इंच या है । उन-उन क्षेत्रों के जीवों के पाप-कम लगभग दस सेन्टीमीटर है। आज से करोडों से भी निसर्गतः भूकम्प होता है। पृथ्वी के वर्ष बाद की स्थिति के बारे में सहज अनुनीचे घनवात की व्याकुलता, तथा पृथ्वी के मान लगाया जा सकता है। तब उत्तरी मीचे.. बाहर पुद्गलों के परस्पर-सघात अफ्रीका उत्तर में खिसकता हुआ भूमध्य (टक्कर) से टुटकर अलग होने आदि कारणों सागर को रौंदता हुआ यूरोप से जा मिलेगा से भूकम्प होने का निरुपण 'स्थानाग' आदि और भूमध्यसागर भी एक झील मात्र बनकर शास्त्रों में उपलब्ध है।
रह जाएगा। दूसरी तरफ, आस्ट्रेलिया, २० द्र० लोक प्रकाश, २०वां सर्ग, सूर्य प्रज्ञ- इंडोनेशिया और फिलस्तीन एक-दूसरे से
प्ति व, १०८ प्राभृत, जम्बुद्दीवपण्णत्ति जुड़ जाएगें, और हिन्दचीन से एशिया का . (श्वेता.) ७-१२६-१५०, भगवती सूत्र भाग जुड़ कर एक नया भूभाग प्रकट होगा
तीसरी ओर, अमेरिका के पश्चिमी तट के ३. स्थानांग-३-४-१९८, भूकम्प के पांच
_ समस्त नगर व राज्य एक दूसरे के निकट प्रकार होते हैं (द्र. भगवती सू. १७--३२ ४. द्र. अंगुत्तर निकाय, ८-७०
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