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आजकल अमेरिका व भारत के बीच प्रायः यह गोल नारंगी की तरह क्यों दिखाई देती ऐसा ही अंतर है । तो क्या अमेरिका को है ? दूसरी बात, सपाट भूमि में यह कैसे विदेह क्षेत्र मान लिया जाय ? और ऐसा सम्भव है कि इस भूमण्डल के किसी भाग मान लेने पर वहां वर्तमान में तीर्थ करों का में यह कैसे सम्भव है कि ईस भूमण्डल के सद्भाव मानना पडेगा ? विदेह क्षेत्र का किसी भाग में कहीं सूर्य देर से उदित हो विस्तार ३१६८४ योजन (लगभग) बताया गया या अस्त हो और कहीं शीघ्र, कहीं धूप है, क्या अमेरिका इतना बडा हैं ? विदेह हो कहीं छाया । क्षेत्र में मेरु पर्वत की ऊंचाई (पृथ्वी पर)
उपर्युक्त शंकाओं का समाधान आगम एक लाख योजन बताई गई है, एसा कौन
श्रद्धाप्रधान द्रष्टि से निम्नलिखित रुप से सा पर्वत आज के अमेरिका में है । मननीय है :
(४) जैन आगमानुसार, लवण-समुद्र इस हम आज जिस भूमण्डल पर है, वह जम्बूद्वीप को बाहर से घेरे हुए है, किन्तु दक्षिणार्ध भरत के छः खण्डों में से मध्यवर्तमान पृथ्वी पर तो पांच महासागर व खण्ड का ही एक अंश है। मध्य खण्ड से अनेक नदियां प्राप्त है। जैन आगमानुसार बीचों बीच स्थित 'अयोध्या' नगरी से दक्षिण उनकी संगति कसे बैठाई जा सकती है ? पश्चिम कोण की ओर, कई लाख मील दूर __ (५) यदि वर्तमान पृथ्वी को जम्बूद्वीप हट कर, हमारा यह भू-भाग है। का ही एक भाग माना जाय, तो भी कई (ख) पृथ्वी के स्वरूप में काल-क्रम से आपत्तियां है । प्रथम तो समस्त पृथ्वी पर परिवर्तन शास्त्रसम्मत ' एक साथ दिन या रात होनी चाहिए ।
(१) पृथ्वी के दो रुप हैं-शाश्वत व भारत में दिन हो और. अमरिका में रात
__ अशाश्वत । जैन आगमों में पृथ्वी के शाश्वत एसा नहीं हो सकता, क्यों कि समस्त
' (मूल) रुप का ही वर्णन है, परिवर्तनशील जम्बूद्वीप में एक साथ दिन या रॉत होते है।
__ भूगोल का नहीं । (६) उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव में अत्यधिक
वस्तुतः पृथ्वी थाली के समान चिपटी व लम्बे दिन व रात होते हैं । इसकी संगति समतल ही थी । किन्तु अवसर्पिणी काल के आगमानुसार कैसे सम्भव है ? ।
प्रारम्भ में ईस पृथ्वी पर भारी कचरा (कूड़े(७) जैनागमों में पृथ्वी को चपटी व · मलवे का ढेर) इकट्ठा हो गया, जो कहींसमतल माना गया है,४ फिर रैज्ञानिकों को कहीं तो लगभग एक योजन ऊंचा तक (४००० ४. बल विभज्य भूभागे विशाले सकल समे मणिज्जे भूमिभागे (जम्बू० प० श्वेता०
(आदिपुराण - ४४/१०९) । रयणप्पभाए २-२०) । रयणप्पभापुढवी अते य मज्झे पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागओ य सव्वत्थ समा बाहल्लेण (जीवाजीवा० (जीवाजीवा० सू, ३-१२२) बहुसमर- सू. ३-१-७६) ।
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