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मार बाह्य
कर-चक्रवतीं एवं अन्य उत्तम पुरुष होते हैं, तथा ६ भोगभूमियां है २ । (हेमवत, हैरण्यवन, इसलिए जम्बूद्वीप को लवणसमुद्र कभी जल हरि, रम्यक, देवकुरु (विदेह क्षेत्र), उत्तरकुद मम नहीं करता११।
(विदेह क्षेत्र)-इन ६ क्षेत्रों में १-१ भोग___ जम्बूद्वीप के भरतादि क्षेत्रों के आर्य- भूमि है।) खण्डों में ३४ कर्मभूमियां हैं । भरत व एरा
(ग) ५ भरत, ५ ऐरावत, ५ विदेहवत में १-१, तथा विदेह क्षेत्र में ३२, इस
इस प्रकार (प्रत्येक में तीन) पन्द्रह प्रकार कुल कम भूमियों की संख्या चौतीस
कर्म भूमियों का भी निर्देश है हो जाती है । इस प्रकार कुल १७० म्लेच्छखण्ड, जीवाजीवा० सू० २/४५, ३/१/११३) ११. जीवाजीवा० ३।१७३,
(घ) समस्त मनुष्य-क्षेत्र (अढाई द्वीप हरिवंश पुराण के अनुसार ४२ हजार
में) ५ भरत, ५ ऐरावत, तथा नागकुमार इस लवणसमुद्र की. आभ्यन्तर
१६० विदेह-इनमें से प्रत्येक में वेला को तथा ७२ हजार नागकुमार बाह्य
१-१ कर्मभूमि होने से कुल कमवेला को धारण (नियमित) कर रहे है (हरि
भूमियाँ १७० हो जाती है। पंश पु० ५/४६६) । जीवाजीवाभिगम सूत्र २. ति० प० २३९७, त० सू० ३/३७ (सू० ३।१५८) तथा बृहत्क्षेत्रसमास, (४१७- दिग० सं०) तथा इस पर टीकाएं। १८) में भी यही भाव व्यक्त किया गया है।
समस्त भोगभूमियां ३० (जंबूद्वीप १. (क) ति० प०४/२३९७, स्थानांग-३/३/ में ६, धातकी खण्ड में १२, पुष्कराध
३९०, त० सू० ३/३७ (दिग० सं०) में १२), तथा कुभोगभूमियां-९६ (लवण तथा इसकी टीकाएं,
समुद्र के अन्तद्वीपों में) मानी गई है (ख) बिदेहों के ३२ भेद इस प्रकार (६० ति० प०४/२९५४)।
हैं:-उत्तर कुरु व पूर्व विदेह को __अन्तीपों की संख्या दिगम्बरसीता नदी, तथा देवकुरु व अपर परम्परा में ४८ (दृष्टव्य-तिलोय ५० बिदेह को सीतोदा नदी दो-दो ४/२७४८-८०, त्रिलोकसार-९१३, हरिभागों में विभाजित करती हैं, वंश पु० ५/४८१, राजवार्तिक-३/३७ जिससे विदेह के ८ भाग हो जाते आदि), तथा श्वेताम्बर-परम्परा में ५६
है । ३ अन्तनदियों तथा चार मानी गई है (द्र० स्थानांग-४/२/३२१-२७, . वक्षस्कार पर्वतों से विभाजित जीवाजीवा० सू० ३/१०८-११३, लो० होकर इन में से प्रत्येक के ८-८ प्रकाश-१६/३११-१९, भगवती सूत्र ९/३ भाग हो जाते है (द्र० लोक प्रकाश २/३)। १७/१८-२०, हरिवंश पु० ५/२३८- ३ ति० प० ४/२३९७, त० सू० ३/३७ २५२, बृहत्क्षेत्र समास-३२०,
(दिगं० सं०) तथा इस पर टीकाएं, ३६१-३९३)।
स्थानांग-६/३/८३
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