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इसमें मनुष्य - लोक जितने क्षेत्र में हैं, वह ४५ लाख योजन लम्बा-चौड़ा, तथा १४२३० ४९ योजन परिधि वाला है । ३
सबसे छोटी और आठवीं पृथ्वी ऊर्ध्वलोक में (सभी देव - कल्पविभागों से परे ) है, ४ जहां सिद्ध क्षेत्र (मुक्त आत्माओं का
जोयणसहस्सा परिकखेवेण पण्णत्ता (जीवाजीवाभिगमसूत्र - ३|१|७६) । तत्थ पढमढवी एकरज्जुविक्ख भा सत्तरज्जुदीहा बीससहस्सूण बेजोयणलक्खबाहल्ला (तिलोयपण्णत्त, १/२८३ पृ० ४८) । प्रथम पृथ्वी एक राजू विस्तृत, सात राजू लम्बी तथा एक लाख अस्सीहजार याजन मोटी है । राजू का प्रमाण असंख्यात योजन है ( प्रमार्णागुल निपन्न योजनानां योजनानां प्रमाणतः । असख्यकोटोकोटीभिरेका रज्जुः प्रकीर्त्तिता - लोकप्रकाश, १/६४) । आधुनिक विद्वानों के मत में राजू लगभग १.१६ १० १५ मील के समान है ।
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३. तिलोय पण्णत्ति - ४१६-७, हरिवंशपुराण - ५ ५९०, जीवाभिगमसूत्र - ३ |२| १७७, बृहत्क्षेत्र समास-४. स्थानांग३।१।१३२,
४. ऊर्ध्व तु एकैव (त. सू. भाष्य, ३ १ ) नृलोक तुल्यविष्कम्भा (त. सू. भाष्य, दशमाध्याय, उपसंहार, श्लोक-२० ) । इस पृथ्वी का विस्तार (लम्बाई-चौड़ाई) ४५ लाख योजन है जो मनुष्य क्षेत्र के समान है । इसकी परिधि एक करोड बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनचास योजन मे कुछ कम मानी
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निवास ) अवस्थित है । ५ बाकी सात पृथ्वियां मध्यलोक के नीचे हैं जहां नरक अवस्थित हैं । ६
ये सभी पृथ्वियां द्रव्य की दृष्टि से शाश्वत है: : - इनका कभी नाश नहीं होता । ७ (४) पृथ्वियों की स्थिति व आधार
रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों में प्रत्येक, तीनतीन वातवलयों के आधार पर प्रतिष्ठित है । इनके नाम हैं - (१) घनोदधि, (२) घनवात, (३) तनुवात । ये वातवलय आकाश पर प्रति
गई है— द्र० औपपातिक सूत्र – ४२, स्थानांग ३ | १|१३२, ८ १०८, दिगम्बर मत में ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी एक राजू चौडी तथा सात राजु लम्बी है (तिलोयपण्णत्ति, ८।६५२-५८) ।
किन्तु इस पृथ्वी के बहुमध्यभाग में 'ईषत्प्राग्भार' क्षेत्र है जिसका प्रमाण, ४५ लाख योजन है (तिलोयपण्णत्ति - ८ । ६५६-५८, हरिवंश पु० ६ १२९), ५. तिलोयपज्णति - ९ / ३, भगवती आराधना - ११३४, २१२७
६. त. सू. ३/२, ज्ञानार्णव- ३३/१०, त्रिषष्टि० २ / ३ / ४८५, हरिवंश पु० ४ / ७१ - ७२, प्रज्ञापना सूत्र, २ / ६६ (सुत्तागमो, २ भाग, पृ० २६४) । जीवा - जीवाभिगम - ३ / २, सू. ८१ लोकप्रकाश-६ / १ ७. जीवाजीवाभिगम सूत्र, सू० ३/१७८ व
३२८५. जंबूद्दीवपणत्ति (श्वेताम्बर) - ७ / ९७७ (सुत्तागमो, भा० २ पृ० ६७१) ।
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