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विचय' धर्म ध्यान के विशेष फल इस प्रकार जाती है८ । अनुप्रेक्षाए बारह है, उनमें 'लोकाहै-(१) लेश्याविशुद्धि, तथा (२) रागादि- नुप्रेक्षा' के अन्तर्गत, विश्व के वास्तविक स्वरुप आकुलता में कभी४ ।।
का चिन्तन किया जाता है, जिसका फल
चित्त-विशुद्धि, एवं ध्यान-प्रवाह की विरति धर्मध्यान-रुप 'संस्थान-विचय' (लोक
को कम या समाप्त करना आदि है। विचय) के चार भेद माने गए है (१) पिण्डस्थ,
(३) लोक के स्वरुप को बार-बार चिन्तन (२) पदस्थ, (३) रुपस्थ, (४) रुपातीत५ । इन में 'पिण्डस्थ' धर्म ध्यान की पाँच धारणाए
___ करने से स्वद्रव्यानुरक्ति, परद्रव्य-विरक्ति,१०
तथा समस्त कम-मल-विशुद्धि का आधार है-(१) पार्थिवी, (२) आग्नेयी, (३) मारुती,
दृढ होता है११ । इसी दृष्टि से, आचारांग सूत्र (४) वारुणी, (५) तत्त्वरुपवती६ । इनमें पार्थिवी
में लोक-सम्बन्धी ज्ञान के अन्तर ही विषयाधारणा के अन्तर्गत, साधक मध्यलोकवत्
सक्ति के त्याग में पराक्रम करने का निर्देश क्षीरसमुद्र के मध्य जम्बूद्वीप को एक कमल के रुप में चिन्तन करता है । इस कमल में (४) लोक-सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करने के मेरु-पर्वत रुपी दिव्य कर्णिका होती है। बाद ही, धर्म का निरुपण करना शेयस्कर
(२) ध्यान से मिलती-जली क्रिया माना गया है१३ । 'भावना' या 'अनुप्रेक्षा' है । वे एक प्रकार की ८. राजवार्तिक, ६/३६/१२ (अनित्यादिविषय चिन्तन-धाराए हैं जो वार-बार की जाती है। चिन्तनं यदा . ज्ञानं तदा अनुप्रेक्षाजब इसी चिन्तन-धारा में एकाग्र-चिन्ता- व्यपदेशो भवति, यदा तत्रैकाग्रचिन्तानिरोध हो जाता है तो 'ध्यान' की स्थिति हो निरोधस्तदा धाध्यानम्) ।
९. त० सू० ९/७, हैमयोगशास्त्र-४/५५४. नानाद्रव्यगतानन्तपर्यायपरिवर्तनात् । ५६, लोकस्य संस्थानादिविधियाख्यातः।
सदासक्तं मनो नैव रागाद्याकुलतां तत्स्वभावानुचिन्तनं लोकानुपेक्षा । एवं व्रजेत् ॥ धर्मध्याने भवेद् भावः क्षायोप
ह्यस्याध्यवस्यतः तत्त्वज्ञानादिविशुद्धिर्भवति शमिकादिकः । लेश्याः क्रमविशुद्धाः स्युः (राजवातिक, ९/७/८)। पीतपद्मसिताः पुनः (हेमयोग शास्त्र- १०. द्र० पंचास्तिकाय-१६७.१६८, समय११/१५-१६) ॥
सार-१०/१०५, । ५. ज्ञानार्णव-३४/१, हैमयोगशास्त्र-७/८. ११. स्वतत्त्वरक्येत नित्यं परद्रव्यविरक्तये ।
_ स्वभावो जगतो भाव्यः समस्तमलशुद्धये ६. ज्ञानार्णव-३४/२-३, हैमयोगशास्त्र
(योगसार-प्राभृत-अमितगतिकृत, ६३/२)।
१२. विदित्ता लोगं यंता लोगसणं. से मइयं ७. ज्ञानार्णव-३४/४-८, हैमयोगशास्त्र- परक्कमेज्जासि (आचारांग, १/३/१/२५) । ७/१०-१२,
१३. सूत्रकृतांग-२/६/२/४९-५०
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