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साधना द्वारा अधिगत लोकालोकज्ञता में, को परम्परया मोक्ष भी मिलेगा । ८ इसलिए, स्पष्ट व प्रत्यक्षतया, झलकते हुए समस्त बाह्य आ० हैम-योगशास्थ, १०/२२-२४, आ० हेमविश्व का निरुपण है।५
___ चन्द्र ने धर्म-ध्यान को मोक्ष ब स्वर्ग. जैन परम्परा में सृष्टि-विज्ञान का आध्या- दोनों का साधक बताया है । '१ त्मिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है-इसके ध्यान के चार भेदों में तीसरा भेद 'धर्म स्पष्ट प्रमाण निम्नलिखित हैं:- . ध्यान' है२ । लोक के स्वभाव, आकार तथा
(१) मोक्ष का प्रमुख साधन ध्यान है। लोकस्थित विविध द्वीपों, क्षेत्रों समुद्रों आदि ध्यान से संवर, निर्जरा व मोक्ष-तीनों के स्वरुप के चिन्तन मैं मनोयोग केन्द्रित होते हैं । ६ ध्याता को मोक्ष यदि न भी करना 'संस्थान-विचय' धर्म ध्यान है। संस्थानप्राप्त हो, पुण्यासव तो सम्भावित है ही १७ ८. स्वशदधात्मभावनाबलेन संसार-स्थिति अस्तु, पुण्यास्रव की स्थिति में भी ध्याता स्तोक कृत्वा देवलोक गच्छति तस्माद ५. शैलोक्य सकल त्रिकालविषय सालोक
___ आगत्य मनुष्यभवे रत्नत्रयभावनया संसा"मालोकितम् , साक्षाद् येन यथा स्वयं
रस्थितिं स्तोक कृत्वा पश्चान्मोक्षं गताः। करतले रेखात्रय सांगुलि (अकलं कस्तोत्र,
तभावे सर्वेषां मोक्षो भवतीति नियमो
नास्ति (द्रव्यसंग्रह, ५७ पर टीका) । १) । सालोकानां त्रिलोकानां यद्-विद्या
१. स्वर्गापवर्गहेतुर्धर्मध्यानमिति कीर्तित - दर्पणायते (रत्नकरण्ड-१/१) । लोकप्र
यावत् (हैम-योगशास्त्र, ११/१)। काश–३/६३४-३५,
२. आर्तरौद्रधर्मशुक्लानि (त० सू०६/२६, ६. तपोजातीयत्वात् ध्यानानां निर्जराकारण- ___दिग० पाठ में ६/२८)।
त्वप्रसिद्धिः (राजवार्तिक, ६/३/३) । कुरु ३. लोकसंस्थानस्वभावावधानं संस्थानविचयः जन्माब्धिमत्येतु ध्यानपोतावलम्बनम् तदवयवानां च द्वीपादीनां तत्स्वभावाव(ज्ञानार्णव-३/१२)। हैमयोगशास्त्र-४/
.. धानं संस्थानविचयः (राजवार्तिक, ६/३६ ११३, पंचास्तिकाय-६-२६ ।
१०) । लोकस्याधस्तिर्यग् विचिन्तयेदू -
मपि च बाहुल्यम् । सर्वत्र जन्ममरणे ७. शुभध्यानफलोदूभृतां, शिय त्रिदशसम्भवाम् ।
रुपिद्रव्योपयोगांश्च (प्रशमरतिप्रकरण, निर्विशन्ति नरा नाके, क्रमाद्यान्ति पर
१६०) ॥ त्रिभुवनसंस्थानस्वरुप-विचयाय पदम् (ज्ञानार्णव-३/३२) ॥ होति सुहा- .
स्मृतिसमन्वाहारः संस्थानविचयो निगद्यते सवसंवरणिज्जारामरसुहाइ विपुलाई।
(त० सू० ६/३६ पर श्रुतसागरीय घृति)। झाणवरस्स फलाई, सुहाणुबधीणि धम्मस्स
हैमयोंगशास्त्र, १०/१४, आदि पुराण - . (घवला-१३/५,४,२६/५६) ॥ हैमयोग
२१/१४८-१४६, हरिवंशपुराण-६/१४०, शास्त्र-१०/१८-२१, त्रिषष्टिशलाकापुरुष
६३/८८, पाण्डव पु० २५/१०८-११०, चरित-२/३/८०४
ध्यानशतक-५२,
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