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दर्शन एक निवृत्तिप्रधान धर्म है,५ इसलिए (१) पृथ्वी-सम्बन्धी जिज्ञासा : जैन साधक का अन्तिम लक्ष्य यही होता है कि दृष्टि से वह सिद्धि-रुपी कान्ता का वरण करता हुआ६
थेवी-तल पर अधिइस मयं पृथिवी की अपेक्षा, सिद्ध-लोक की
कार करने की अपेक्षा इसके स्वरुपादि का 'ईषत्प्राग्भार' पृथिवी (माता) की छत्रछाया
ज्ञान प्राप्त करना आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक में पहुचे ।७
श्रेयस्कर है । पूर्ण व वास्तविक रुप को जानरिसा...माहू 'धवला, १/१/१, पृ.० ५२), कर साधक के मन में यह विचार स्वतः उठ वसुन्धरा इव सव्वफासविसहा (औपपा- खडा होगा कि इस पृथ्वी के प्रत्येक प्रदेश तिक सूत्र-सू० १६)। वसुन्धरा चेव सुहु- पर वह अनन्तो बार जन्म-मरण के चक्र से यहुए (स्थानांग-९/६९३ गा० २)। गुजर चुका है ।१ उस चक्र से छूटने के उपाय
को जानने हेतु वह सतर्क हो सकता हैं । भोग५. निवृत्ति भावयेद् (आत्मानुशासन-२३६) ।
भूमि, कर्म भूमि, म्लेच्छ-भूमि, नरक-भूमिसंन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्कमै व मोक्षा- इन सब के स्वरूप को जानकर साधक पुण्यर्थिना (समयसार-कलश, १०९) । आस्रवो
पाप के सुफल-दुष्फलादि से सहज परिचित भवहेतुः स्यात् संवरो मोक्षकारणम् (वीत- हो जाता है, और असत् कर्मो से निवृत्त रागस्तोत्र- १९/६) । से णं भंते, अकि- होता हुआं सत्कर्मों की ओर अग्रसर हो रिया किंफला, सिद्धिपज्जवसाणफला जाता हैं । कर्म-भूमि मैं भी वहाँ उनके निवा(भगवती सू० २/५/२६) । एतं सकम्मवि- सियों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के रियं बालाणं तु पवेदितं । एत्तोअकम्मवि
उपरान्त, उसकी यह सहज आकांक्षा उदित रियं पंडियाण सुणेह मे (सूत्रकृतांग-१/
होगी ही, कि असंख्य प्राणियो में पुरुषोत्तम ८/९) ।
-'अर्हत्' आदि-की स्थिति क्यों न प्राप्त ६. ये निर्वाणवधूटिकास्तनभराश्लेषोत्थसौख्या- की जाय। करा"...""तान् सिद्धानभिनौम्यहं (नियम
(ख) तन्वी मनोज्ञा सुरभिः पुण्या परमसार-कलश, २२४) । धमः किं न करोति
भास्वरा । प्राग्भारा नाम वसुधा, लोकमूमुक्तिललनासम्भोगयोग्यं जनम् (ज्ञानार्णव- नि व्यवस्थिता । ऊर्ध्व यस्याः क्षितेः ४/२२)। सिद्धिश्रियालिंगितः (उत्तरपुराण, सिद्धाः लोकान्ते समवस्थिताः (तत्त्वार्थसू० ५०/६८)।
भाष्य, अ० १०, उपसंहार, श्लो० १९-२०)। ७. (क) यः परित्यज्य भूभायाँ मुमुक्षुभव- १. ' सो को वि णत्थि देसो लोयालोयस्स
संकटम् (पद्म पु० ११/२८८) । यावत्तस्थौ । णिरवसेसस्स । जत्थ ण सञ्चो जीवो महीं त्यक्त्वा गृहीत्वा सिद्धियोषिताम् जादो मरिदो य बहुबार' (कार्तिकेयानुप्रेक्षा (पद्म पु० ११४/२२)।
-६८) ॥
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