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पृथ्वीमाता के प्रति भारतीय संस्कृति में हुए है ? और हम सब का अवस्थान किस कितना श्रद्धास्पद स्थान है, यह इसीसे प्रमा- पर आधारित है ?३ . णित है कि प्रत्येक भारतीय हिन्दू प्रातःकाल उपयुक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि उठते ही, समुद्रवसना व पर्वतस्तनम डिता भारतीय चिन्तक इस पृथ्वी व सृष्टि के विषय अलौकिक धरतीमाता के प्रति यह प्रार्थना में सतत जिज्ञासु थे, और उन्होने अपने करता है:
तपोमय अध्यात्मसाधना के द्वारा, जिस सत्य समुद्रवसने देवि ! पर्वतस्तनम डिते । का साक्षात्कार किया, वह हमारे धर्म ग्रन्थों विष्णु-पत्नि ! नमस्तुभ्य पादस्पर्श क्षमस्व मे ॥ (ख) पृथ्वी के स्वरुप की जिज्ञासा (आ) जैन साहित्य में पृथ्वी
पृथ्वी के प्रति श्रद्धालु मानव के मन में . जैन साहित्यकारों ने भी इस पृथ्वी को यह भी जिज्ञासा पैदा हुई कि आखिर यह एक सुन्दर नारी के रुप में देखा । आर्यावर्त पृथ्वी कितनी बडी है, कैसी है, कहाँ, कब, उस पृथ्वी का मुख है, समुद्र जिसकी करऔर कैसे इसकी उत्पत्ति हुई ?
धनी हे, वन-उपवन जिसके सुन्दर केश है, बौदिक ऋषि दीर्घतमा इस पृथ्वी की विन्ध्य और हिमाचल पर्वत जिसके दो स्तन सीमा को जानने की उत्सुकता व्यक्त करता है, ऐसी पृथ्वी (माता) एक सती साध्वी नारी हुआ दृष्टिगोचर होता है ।१ ।
की तरह शोभीत हो रही है ।४ किन्तु, जैन श्वेताश्वतर उपनिषद् का ऋषि भी यह -
३. श्वेता० उप० (वहीं) । कुत आ जात। जिज्ञासा लिए हुए है कि हम कहांर से पैदा
कुत इयं विसृष्टिः (ऋ० १०/१२६/६१०/३१/८)। तस्मिन् तस्थुभुवनानि विश्वा
नासदीय सूक्त) । तैत्ति० ब्राह्मण-२/८/९ (यजु० ३१/१६) । एको विश्वस्य भुवनस्य ४. (क) उदवहन्ती स्तनौ तुगौ, विन्ध्यप्रालेराजा (ऋ०. ६/३६/४) । क्षरात्मानावीशते
यपर्वतौ । आर्य देशमुखी रम्यां नगरीवदेव एकः (श्वेता० उप० १/१०)। लौयुताम् । अधिकाञ्चीगुणां नीलसत्का(ग) बौदिक ऋषि के अनुसार इस पृथ्वी
ननशिरोरुहाम् । नानारत्नकृतच्छायाम्। पर अनेक धर्मो तथा अनेक भाषाभाषी अत्यन्तप्रवणां सतीम् (रविषेणकृत पद्मलोगां का अस्तित्व रहता आया है- पुराण-११/२८६-८७)॥ विन्ध्यकैलाशवक्षो'जन बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं जां पारावारोमिमेखलाम् (जैन पद्मपु०
पृथिवी यथौकसम्' (अथर्व ० १२/१/४५) । ११४/२२) । . १. पृच्छामि त्वां परमन्तं पृथिव्याः (ऋग्वेद
(ख) जैन आचार्यों की दृष्टि में पृथ्वी, १/१६४/३४) । यजुर्वेद-२३/६१,
एक सहनशील व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व २. किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाताः, जीवाम
करती है । इसीलिए मुनि की परिषहजकेन क्व च संप्रतिष्ठाः (श्वेता० उप०
यता को बताने के लिए पृथ्वी से उपमा १/१)।
शास्त्रों में दी गई है-खिदि-उरगंबरस
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