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________________ दिगं. प्रक्रिया के आधार पर जैनदर्शन में आत्म-स्वरूप ले. डॉ. उदयचंद्र जैन जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर जैनदर्शन एक आध्यात्मिक दर्शन है। इसलिए कहा भी है। इस दर्शन में आत्मा से परमात्म-पद की "जे आया से विण्णाणे जे विण्णाणे प्राप्ति का गहन-ऊध्ययन प्रस्तुत किया गया से आया । . है । अर्धमागधी-आगम, शौरसेनी-आगम, जैन-न्याय एवं जैनसिद्धान्त के ग्रन्थों से “अर्थात्-"जो आत्मा है, वह विज्ञान है लेकर अब तक आत्म-स्वरूप के विषय में है, जो विज्ञान है, वह आत्मा हैं। (२)" चर्चाएं की जाती है और प्रमाणित किया है आत्मा का स्वरुप :कि आत्मा ज्ञानवान है, ज्ञान स्वरूप है, आत्मा चैतन्य-स्वरुप है, कर्ता है, भोक्ता ज्ञायक स्वभाववाला है, अनादि-निधन है । ' है, प्रमाता है, प्रमेय है, अमूर्त है, असंख्यात सापेक्ष-दृष्टिसे सोचा जाय तो आत्मा साक्षात् स ही ज्ञान है, ज्ञान साक्षात् आत्मा है, इसलिए आत्मा ज्ञान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। आत्मा जीव है-जीव वर्तमानकाल में जीवित है, भूतकाल में जीवित था और अनागत काल में मी अनेक जन्मों तक जीवित रहेगा । आत्मा अनंतगुणों का पिण्ड है, पर ज्ञान उन अनंत-गुणों में से एक गुण है। आत्मा प्राणी है-पाँच इन्द्रिय, तीन बल, यह ज्ञान-गुण आत्मा से सर्वथा भिन्न आयु और श्वासोच्छवास ये दस . प्राण नहीं है । (१) आत्मा में विद्यमान हैं, इसलिए प्राणी हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005568
Book TitleJambudwip Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Pedhi
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages190
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size23 MB
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