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________________ तिप्राय: युतिमओ - परिशिष्ट-२ ૧૮૯ अर्थापत्ति, अविशेष, उपपत्ति, उपलब्धि, अनुपलब्धि, नित्य, अनित्य और कार्यसम" के भेद से चौबीस प्रकार की है । (१) साधर्म्य से उपसंहार करने पर दृष्टांत की समानता दिखलाकर साध्य से विपरीत कथन करने को साधर्म्यसमा जाति कहते हैं । जैसे, वादीने कहा, 'शब्द अनित्य है, क्योकि कृतक है, जो कृतक होता है, वह अनित्य है, जैसे घडा' । इसमें दोष देनेके लिए प्रतिवादी कहता है, 'यदि कृतक रूप धर्म से शब्द और घडे में समानता है, तो निरवयव रूप धर्म से शब्द और आकाश में भी समानता है, अत एव शब्द आकाश के समान नित्य होना चाहिये' । यहाँ वादी द्वारा शब्द को अनित्य सिद्ध करने में कृतकत्व हेतु का प्रतिवादी ने बिलकुल खण्डन नहीं किया । और केवल दृष्टान्त की समानता दिखाने से साध्य का खण्डन नहीं होता । उस के लिए हेतु देना चाहिए, या वादी के हेतु का खण्डन करना चाहिये । (२) वैधर्म्य के उपसंहार करने पर वैधर्म्य दिखला कर खण्डन करना, वैधर्म्यसमा जाति है । 'जैसे, ‘शब्द अनित्य है, कृतक होने से, घट की तरह' । इसके खण्डन में प्रतिवादी का कथन है, शब्द नित्य है, निरवयव होने से, आकाश की तरह । यहाँ प्रतिवादी का कहना है कि यदि नित्य आकाश के वैधर्म्य से शब्द अनित्य है, तो अनित्य घट के वैधर्म्य से कृतक होने के कारण शब्द नित्य नहीं हो । अत एव इससे वादी के हेतु का कोई खण्डन नहीं होता। (३) दृष्टांत के धर्म को साध्य में मिला कर वादी के खण्डन करने को उत्कर्षसमा जाति कहते हैं । जैसे, वादी ने कहा, 'शब्द अनित्य है, कृतक होने से, घट की तरह' । इस अनुमान में दोष देने के लिये प्रतिवादी कहता है, जैसे घट की तरह शब्द अनित्य है, वैसे ही उसे घट की तरह मूर्त भी मानना चाहिये । यदि शब्द मूर्त नहीं है, तो वह घट की तरह अनित्य भी नहीं है ।' यहाँ वादी घट का दृष्टान्त देकर शब्द में अनित्यत्व सिद्ध करना चाहता है, परन्तु प्रतिवादी घट के दूसरे धर्म मूर्तत्व को शब्द में सिद्ध करके वादी का खण्डन करता है ।। (४) उत्कर्षसमा की उल्टी अपकर्षसमा जाति कही जाती है । साध्यधर्मी में से दृष्टान्त में नहीं रहनेवाले धर्म को निकाल कर वादी के प्रति विरुद्ध भाषण करने को अपकर्षसमा जाति कहते हैं । जैसे, ‘शब्द अनित्य है, कृतक होने से, घट की तरह' । इस प्रतिवादी का कथन है, 'जैसे घट कृतक होने से श्रवण का विषय नहीं है, इसी तरह शब्द को भी श्रवण का विषय नहीं होना चाहिए । यदि शब्द अश्रावण नहीं है, तो वह घट की तरह अनित्य भी नहीं हो सकता । ग्रन्थमें केवल चार जातियों का दिग्दर्शन कराया गया है, पर बाकी जानकारी निम्नोक्त है । (५, ६) “जिसका कथन किया जाता है, उसे वर्ण्य और जिसका कथन नहीं किया जाता, उसे अवर्ण्य कहते हैं । वर्ण्य या अवर्ण्य की समानता से जो असदत्तर दिया जाता है, उसे वर्ण्यसमा या अवर्ण्यसमा कहते हैं । जैसे, यदि साध्य में सिद्धि का अभाव है, तो दृष्टांत में भी होना चाहिये (वर्ण्यसमा), और यदि दृष्टान्त में सिद्धि का अभाव नहीं है, तो साध्य में भी न होना चाहिये (अवर्ण्यसमा) । (७) दूसरे धर्मो के विकल्प उठा कर मिथ्या उत्तर देना, विकल्पसमा जाति है । जैसे, कृत्रिमता और गुरुत्वका सम्बन्ध ठीक ठीक नहीं मिलता, गुरुत्व और अनित्यत्वका नहीं मिलता, अनित्यत्व और मूर्तत्व का नहीं मिलता, अत एव अनित्यत्व और कृत्रिमता का भी सम्बन्ध न मानना चाहिये, जिससे कृत्रिमता से शब्द अनित्य सिद्ध किया जा सके । (८) वादी ने जो साध्य बनाया है, उसीके समान दृष्टान्त आदि को प्रतिपादन कर मिथ्या उत्तर देना साध्यसमा जाति है । जैसे, यदि मिट्टी के ढेले के समान आत्मा है, तो आत्मा के समान मिट्टी के ढेले को भी मानना चाहिये । आत्मा में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005561
Book TitleAdhyatma Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorKirtiyashsuri
PublisherRaj Saubhag Satsang Mandal Sayla
Publication Year2012
Total Pages300
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size8 MB
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