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भी तरह शान्त नहीं होती । हे विश्वोपकारी विभु ! आपके बिना मेरा उद्धार कौन करेगा? आपके बिना मेरी जीवन-नैया को संसार-सागर से पार कौन पहुंचायेगा ?
अशरण, निराधार और अनाथ बने हुए मेरे जैसे दीन-दु:खी को आज परमोपकारी, करुणासिन्धु, त्रिलोकनाथ, विश्ववत्सल श्री अरिहन्त परमात्मा का सुन्दर योग मिला है, इससे सचमुच मेरा जन्म सार्थक बना है । मेरा आज का दिन सफल हुआ है।
अहो ! धन्य है आपके ऐसे अदभुत रूप को जो अष्ट प्रतिहार्यों और चौंतीस अतिशयों से दैदीप्यमान है, मनमोहक है । आपकी गम्भीर और मधुर वाणी भी पैंतीस अतिशयों से युक्त है जिसे सुनते हुए महान् विद्वद्वरों के मन भी मंत्रमुग्ध बन जाते हैं ।
आपके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त वीर्य आदि क्षायिकभाव से प्रकट हुए गुणों के स्वरूप को जानकर भव्यात्माओं के मस्तक आदर एवं बहुमान से झुक जाते हैं । हृदय हर्षोल्लस से पुलकित हो उठते हैं । इस प्रकार अन्त :करण के उल्लास से की जानेवाली आदरबहुमानपूर्वक की प्रभु-भक्ति शिव-सुख को प्राप्त कराने वाली होती है ।
इसलिए शास्त्रों में उपादान-कारण से भी निमित्त कारण की (अपेक्षा से) प्रधानता बताई गई है क्योंकि उपादान में विशेष का आधान निमित्त के योग से ही होता है । ऐसा नियम हैं । सर्व आत्माओं की सत्ता सिद्ध समान होते हुए भी श्री अरिहन्त की सेवा का निमित्त मिले बिना भव्य जीव की भी सिद्धता प्रकट नहीं होती । उपादान को तैयार करने वाला निमित्त है । एसा यदि न माना जाय तो निगोद के जीवों में भी मोक्ष की उपादानता होने पर भी उनका मोक्ष क्यों नहीं होता?
तात्पर्य यह है कि वे अपने मोक्ष के उपादान होते हुए भी देव-गुरुरूप निमित्त न मिलने से उनमें उपादान-कारणता प्रकट नहीं होती । उपादान में कारणता(अवश्य कार्य उत्पन्न करने की शक्ति) निमित्त के योग से ही प्रकट होती है । उपादान अनादि होने पर भी उसकी कारणता सादि-सान्त है । श्री अरिहत परमात्मा के आलम्बन से जब आत्मा स्वरूप में लयलीन बनता है तब उपादानकारणता प्रकट होती है और सिद्धतारूप कार्य सिद्ध होने पर वह(कारणता) भी निवृत्त हो जाती है ।
बीज में फल उत्पन्न करने की शक्ति उपादान है परन्तु वृष्टि आदि सामग्री के योग से उसमें अंकुर फूटते हैं तभी फलरूप कार्य की सिद्धि होती है। इसी तरह मोक्षरूप कार्य का बीज आत्मा होने पर भी श्री अरिहन्त की सेवादि के योग से सम्यग्दर्शन प्रकट होने पर मोक्षरूप कार्य सिद्ध होता है। बीज के ढेर पडे हों, परन्तु वृष्टि आदि के अभाव में जैसे ।।
भयंकर दुष्काल पड़ता है वैसे ही इस लोक में अनेक भव्य जीव विद्यमान हैं तो भी श्री अरिहन्त परमात्मा और उनके शासन की 40 आराधना के बिना किसी का भी मोक्ष नहीं होता । अतः यह सिद्ध होता है कि श्री अरिहन्त की सेवा मोक्ष का पुष्ट निमित्त है । इसके बिना अकेला उपादान कार्य करने में समर्थ नहीं हो सकता ।
अब अपेक्षा से कार्य, कारणरूप में परिणत हो सकता है और कारण, कार्य रूप में परिणत हो सकता है । इस आश्चर्यजनक पंक्ति का रहस्य प्रकट करते है।
उपादान कार्य-कारण की अपेक्षा से विचारणा : जब श्री अरिहन्त परमात्मा के आलम्बन से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है, तब तत्त्व श्रद्धा, तत्त्वज्ञान और तत्त्वरमणता रूप(क्षयोपशम रत्नत्रयीरूप) कार्य की निष्पत्ति होती है और वह क्षायोपशमिक रत्नत्रयीरूप कार्य ही क्षायिक रत्नत्रयी को प्रकट करने में कारणरूप बनता है । इस तरह कार्य का कारणरूप में परिणमन होता है । अब जो क्षयोपशम रत्नत्रयीरूप कारण है वह जब क्षायिकभाव के रूप में परिणत होता है तब कारण ही कार्यरूप बन जाता है ।
निमित्त कार्य-कारण की अपेक्षा से विचारणा : श्री अरिहन्त परमात्मा का जो शुद्धसिद्धतारूप कार्य प्रकट हुआ है वही मुमुक्षु भव्यात्माओं के लिए निमित्त कारण होता है । अरिहन्त परमात्मा के केवलज्ञानादि गुणों के चिन्तन ध्यान द्वारा मुमुक्षु आत्मा को वैसा ही अपना शुद्ध-स्वरूप प्रकट करने की रुचि उत्पन्न होती है। मोक्षरुचि रूप उपादान कारण ही अन्त में मोक्षरूप कार्य में परिणत होता है । इस तरह परमात्मा की सकल सिद्धता ही भव्यात्मा के लिओ परम साधनरूप है । श्री अरिहन्त परमात्मा को आदर एवं बहुमानपूर्वक किया हुआ एक ही नमस्कार भव्य जीवों को संसार-सागर से पार उतारने में समर्थ है । यह है प्रभुवन्दना का महान् फल !
प्रभु की प्रभुता को यथार्थ रीति से पहचान कर स्वसाध्य को सिद्ध करने के लिए जो कोई श्री अरिहन्त परमात्मा को वन्दन करता है उसका जीवन धन्य बनता है, कृतार्थ होता है । ऐसे मुमुक्षु आत्मा अल्पकाल में ही मोक्ष-सुख के भोक्ता बनते हैं यह सुनिश्चित बात है ।
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