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________________ अज्ञान- अवस्था से हुई भूतकालीन भूलों को याद कर उनका पश्चात्ताप करना चाहिए । गद्गद् हृदय से और अश्रुपूरित आँखों से की गई प्रभु-प्रार्थना ढेर सारे पाप-पुंजो को आत्मप्रदेशों से खींचकर बाहर कर देती है और सन्तप्त हृदय को शान्त बना देती है । वर्तमान में मिथ्यात्व, अविरति प्रमाद और कषायादि के वश होकर जो कुछ मन-वचन-काया से अशुभ आचरण हो गया हो उसके लिए सखेद पश्चात्तापपूर्वक प्रभु के पास क्षमायाचना करनी चाहिए । इस लोक या परलोक के पौद्गलिक सुख को पाने के लिए या यश-कीर्ति की कामना से, आत्म-स्वरूप के लक्ष्य बिना किये गये धर्माचरण या धर्मशास्त्रों के अभ्यास से भी आत्मविकास नहीं किया जा सकता, फलत: केवल मोक्ष-प्राप्ति के ध्येय से ही सम्यक क्रिया या शास्त्राभ्यास करना चाहिए । श्री अरिहन्त परमात्मा का शासन ही जीव को शिव (सिद्ध) बनाने में समर्थ है । ऐसी दृढ श्रद्धा विकसित करनी चाहिए । अनुपम मुक्ति-सुख को देनेवाले इस जिन-शासन को पाकर भी यदि हमारी आत्मविशुद्धि न होती हो तो इसमें हमारे पुरुषार्थ की ही कमी है । इस कमी को दूर करने के लिए प्रभु-प्रार्थना प्रेरक बनकर हमें महान बल प्रदान करती है । आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने के मुख्य साधन इस प्रकार हैं- प्रभु की पहचान, प्रभु की सेवा, सम्यग्दर्शन, यथार्थ ज्ञान, स्वरूपरमणतारूप चारित्र, तत्त्व-एकाग्रतारूप तप और वीर्योल्लास । अर्थात् अरिहन्त परमात्मा की यथार्थ पहचान करके उनकी सेवा करने से सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्यादि गुणों की प्राप्ति होती है और गुणों की पूर्णता ही मोक्ष है। इस प्रकार विचार करने से जाना जा सकता है कि मुक्ति का मूल जिनभक्ति (सेवा) है और भक्ति का मूल प्रभु-प्रार्थना है। इसीलिए भक्त भावुक आत्माएँ सदा भावभीने हृदय से और गद्गद् स्वर से प्रभु के सन्मुख प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि २४(१६) हे प्रभो ! करुणा सिन्धु विभो ! मुझ में भवसागर तैरने की अल्प भी शक्ति नहीं है । मेरे दुष्ट आचरणों को देखते हुए तो मेरा भव से पार होना संदिग्ध है तो भी आपका 'तारक' बिरुद सुनकर मैं आपके चरणों में दौड़कर आया हूँ अर्थात् आपके 'तारक' बिरुद को सार्थक करने के लिए भी इस दीनदु:खी असहाय सेवक को भीषण भवसागर से उबार लीजिये अथवा उसे तैरने की शक्ति प्रदान कीजिये जिससे सर्व साधनाओं को सिद्ध कर और सिद्धता प्राप्त कर यह सेवक सदा के लिए आपके समागम को प्राप्त कर सके । सचमुच ! सच्चे भक्तात्मा की यही अन्तिम अभिलाषा होती है । इस चौवीसी के कर्ता श्रीमद् देवचन्द्रजी पाठक महोदय ने भी चौवीसी समाप्त करते हुए प्रभु के पास अपनी अभिलाषा इसी रूप में व्यक्त की है । ग्रन्थकर्ता जिनागमों के गहरे अगाध रहस्यों के महान् ज्ञाता होते हुए भी नम्रभाव से अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए कहते हैं कि, मैंने मेरे अल्पज्ञान के अनुसार परमेश्वर की स्तवना (गुणग्राम) की है । इसमें जो कुछ यथार्थ हो वह प्रमाणभूत हैं और जो कुछ अयथार्थ हो वह मेरी मतिमंदता के कारण है, उन त्रुटियों के लिए 'मिच्छामि दुक्कडं' । गीतार्थ-पुरुष (गुणी- पुरुष) परम गुणग्राही होते हैं और दूसरों के दोषों के प्रति उदासीन भाववाले होते हैं। भद्रभाव से की गई इस रचना में जो कोई स्खलना त्रुटि हुई हो तो उसे वे महापुरुष क्षमा करें, ऐसी प्रार्थना करता हूँ । ૨૪(૧) શ્રી મહાવીર સ્વામી ભગવાન २४ (४) त्रिशलाभाता સ્તવનમાં આપેલા ચિત્રોનું વિવરણ ૨૪(૨) શ્રી મહાવીર સ્વામી ભગવાન ૨૪(૫) ૧૪ સ્વપ્ન લક્ષ્મીજી સહિત ૨૪(૮) મહાવીરસ્વામીનું ચ્યવન અને જન્મ કલ્યાણક ૨૪(૭) વર્ધમાનકુમારનું પાઠશાળા ગમન ૨૪(૯) મહાવીરસ્વામીનું દીક્ષા કલ્યાણક ૨૪(૧૦) પાઠશાળામાં બ્રાહ્મણના વેશમાં ઈન્દ્ર મહારાજ દ્વારા કરાતી પ્રભુ સાથે પ્રશ્નોત્તરી ૨૪(૧૧) ચંડકૌશિકનો ઉપસર્ગ - વૈદ્યો ખીલા કાઢે છે. પગ ઉપર ખીર રાંધવાનો ઉપસર્ગ ૨૪(૧૨) મહાવીરસ્વામીના કાનમાં ખીલા ઠોકવાનો ઉપસર્ગ ૨૪(૧૩) સમવસરણમાં બિરાજમાન મહાવીર સ્વામી પરમાત્મા ૨૪(૧૪) મહાવીર સ્વામીનું કેવળજ્ઞાન કલ્યાણક ૪(૧૫) ઈન્દ્રસભા ૨૪(૧૬) મહાવીર સ્વામી ભગવાનના ૧૧ ગણધરો Jain Education International For Personal & Private Use Only ૪૬૫ ૨૪(૩) શ્રી ગૌતમસ્વામી ૨૪(૬) આમલડી ક્રિડા www.jainelibrary.org
SR No.005524
Book TitleShrimad Devchandji Krut Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremal Kapadia
PublisherHarshadrai Heritage
Publication Year2005
Total Pages510
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size114 MB
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