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________________ अनादिकाल से परभाव में लुब्ध वनकर स्वभाव-भ्रष्ट होकर अशुद्ध हो गया हूँ, तो भी जाति-मूलरूप से तो में शुद्ध गुण पर्यायमय आत्मा ही हूँ । (३) निर्मम: मैं ममता (ममत्व) से रहित हूँ । (४) निरावरणता में केवलज्ञानमय और केवलदर्शनमय हूँ । (५) स्थिरता शुद्ध स्वरूप के भावन (अनुभवज्ञान) और रमणता (आनंद) में स्थिर होकर में सर्व बाह्य एवं अभ्यन्तर उपाधियों का नाश कर रहा हूँ। इस प्रकार प्रभुभक्ति से आत्मभावना आदि उपायों द्वारा षट्कारक-चक्र शुद्ध आत्मस्वरूप का साधक बनता है और जब साधकता को प्राप्त कारकों की प्रवृत्ति परिवर्तित होती है तब साधक को (१) में आत्मधर्म का कर्ता हूँ । (२) आत्मधर्म में परिणमन करना मेरा कार्य है । (३) ज्ञानादि गुण मेरे आत्मधर्म के अनुरूप प्रवृत्ति करते हैं । (४) आत्मा की अपूर्व-अपूर्व शक्तियाँ क्रमशः प्रकट होती जाती है । (५) मेरी पूर्वस्थित अनादिकालीन विभाव-परिणति नष्ट होती जाती है । तथा, (६) समग्र गुणपर्याय का आधार मेरी आत्मा है । ऐसी प्रतीति होती है । इस प्रकार षट्कारक साधकभाव को प्राप्त करते हैं तब अवश्य सिद्धतारूप कार्य सिद्ध होता है । ये छह कारक कार्य को उत्पन्न करने के साधन हैं । अत एव ये कारण के ही प्रकार हैं। सर्व कार्यकर्ता के आधीन होते हैं परन्तु कारणादि सामग्री के बिना कर्ता कोई भी कार्य करने में समर्थ नहीं बन सकता । आत्मा के छह कारक, आत्मा के प्रकट (निरावरण) पर्याय हैं। कर्त्तापन आदि आत्मा का विशेष स्वभाव है । गुण और पर्याय का आवरण होता है परन्तु स्वभाव को कोई आवरण नहीं होता । परन्तु उसके कारणभूत चेतना और वीर्य कर्म से आवृत्त हैं इसलिए कर्तृत्त्व शक्ति मन्द पड़ती है । विपरीतरूप में परिणत होती है परन्तु वह कर्तृत्व शक्ति कभी मूलत: आवृत्त नहीं होती । मूल आत्मस्वरूप कर्म से आवृत होने के कारण कर्मबन्धरूप अशुद्ध कार्य का कर्ता जीव बनता है परन्तु जब परमात्मा के आलम्बन से शुद्ध स्वभाव को प्रकट करने की रुचि जागृत होती है तब कर्तृत्व आदि षट्कारक स्वकार्य करने में शक्तिमान होते हैं । अतः श्री अरिहन्त परमात्मा की सेवा ही मोक्षप्राप्ति का सरल और सर्वश्रेष्ठ साधन है । यही सब शास्त्रों का परम रहस्य है । इस रहस्य को प्राप्त कर सव मुमुक्षुओं को जिनभक्ति में तत्पर और तन्मय होने के लिए सदा उद्यमशील बनना चाहिए । સ્તવનમાં આપેલા ચિત્રોનું વિવરણ ૧૯(૧) શ્રી મલ્લિનાથ ભગવાન गट्टाछभां - १८ (२) दक्षायुक्त यरएापाहुआ - पाद्मनुं ध्यान - गाथा १ १८ (३) अरमां २४ तीर्थं४२ परमात्मा - आसंजन - गाथा ७ ૧૯(૪) શ્રી પાર્શ્વનાથ ભગવાન - પ્રભુજીની સેવા - ગાધા ૭ Jain Education International For Personal Private Use Only ३७५ www.jainelibrary.org
SR No.005524
Book TitleShrimad Devchandji Krut Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremal Kapadia
PublisherHarshadrai Heritage
Publication Year2005
Total Pages510
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size114 MB
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