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गया है । ‘स्याद्' पद नास्ति ओर अवक्तव्य धर्म की अनर्पितता का द्योतक है । (२) स्याद् नास्ति एव आत्मा' अर्थात् कथंचितरूप से आत्मा नहीं है । पर द्रव्य के वर्णादि धर्म आत्मा में नहीं है तथा अपने भूत और भावी पर्याय
भी वर्तमान में नहीं है अतः पर द्रव्यादि की अपेक्षा से आत्मा नास्ति (नहीं) है । यहाँ स्यात् पद अस्ति और अवक्तव्यता का सूचक है । (३) 'स्याद् अस्ति नास्ति एव आत्मा' अर्थात् आत्मा कथंचित् है भी और नहीं भी । स्व-द्रव्यादि की अपेक्षा से आत्मा है और पर-द्रव्यादि की
अपेक्षा से आत्मा नहीं है । इसी तरह वर्तमानपर्याय की अपेक्षा आत्मा है और भूत-भावीपर्याय की अपेक्षा से आत्मा नहीं है । (४) 'स्याद् अवक्तव्यमेव आत्मा' अर्थात् कथंचित् आत्मा अवक्तव्य है क्योंकि वचन द्वारा अस्ति-नास्ति धर्मों को युगपत्-एकसाथ नहीं कहा
जा सकता । साथ ही अस्ति-नास्ति आदि धर्मों के अभिलाप्य(वचनगोचर)-पर्यायों की अपेक्षा अनभिलाप्य पर्याय
अनन्त गुण हैं अतः प्रत्येक द्रव्य में कथंचित् अवक्तव्यता रही हुई है। (५) 'स्याद् अस्ति अवक्तव्यमेव आत्मा' अर्थात् कथंचित् आत्मा है और अवक्तव्य है। स्व-पर्यायादि की अपेक्षा आत्मा |
है और युगपत् सामान्य विशेष उभय की अपेक्षा से समकाल में वचन से अगोचर है, अत एव अवक्तव्य है । (६) 'स्याद् नास्ति अवक्तव्यमेव आत्मा' अर्थात् कथंचित् आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है । पर-पर्याय की अपेक्षा से
आत्मा नहीं है और पूर्वोक्त युगपत् उभय विवक्षा से समकाल में अवक्तव्य है । (७) 'स्याद् अस्ति-नास्ति अवक्तव्यमेव आत्मा' अर्थात् कथंचित् आत्मा है, नहीं है और अवक्तव्य है । स्व-पर
पर्यायादि की अपेक्षा से अनुक्रम से है (अस्ति) और नहीं (नास्ति) परन्तु युगपत् उभय की विवक्षा से समकाल से अवक्तव्य है । इस प्रकार नित्य-अनित्य आदि अनन्त धर्मों की अनन्त सप्तभंगियां अपेक्षाभेद से एक द्रव्य में हो सकती हैं परन्तु एक धर्म को लेकर तो सात ही भंग अर्थात् एक ही सप्तभंगी घटित हो सकती है ।
इस सम्बन्ध में विशेष विचारणा ‘सम्मतितर्क' 'तत्त्वार्थसूत्र-वृत्ति' और 'स्याद्वाद-रत्नाकर' आदि ग्रन्थों में की गई है। उनका विशेष स्वरूप जानने के लिए जिज्ञासुओं को गीतार्थ गुरु भगवन्तों का समागम करना चाहिए ।
निक्षेप : न्यास-स्थापना अर्थात् नाम-स्थापना, द्रव्य और भावादि द्वारा वस्तु की विचारणा करना उसे निक्षेप कहते हैं । जैसे, जिनेश्वर का नाम 'नाम-जिन' है । जिनेश्वर की मूर्ति स्थापना-जिन' है । जिनेश्वर की पूर्व और उत्तर अवस्था द्रव्य-जिन है । समवसरण में बैठकर देशना देते हुए तीर्थंकर भाव-जिन है।
उक्त रीति से चार, छह या दस प्रकार के निक्षेप द्वारा विविध अपेक्षाओं से वस्तु की विचारणा करने से वस्तु का स्पष्ट बोध होता है । जिनागमों में आध्यात्मिक साधना के सुन्दर, सचोट और सरल उपाय बताये गये हैं । सम्यग्-रत्नत्रयी (सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र) की पूर्णता प्रकट करने के साधनों का और मार्गानुसारी आदि भूमिकावाले साधकों का सूक्ष्म और विस्तृत स्वरूप जिनवाणी द्वारा जाना जा सकता है ।
जिनवाणी सापेक्ष होती है अर्थात् जिनवचन मुख्यता एवं गौणता से युक्त होते हैं । स्याद्वाद का रहस्य अपेक्षावाद से समझा जाता है । प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मयुक्त होती है परन्तु अधिकारी-विशेष को लेकर उसके लिए हितकारी और प्रसंगोचित धर्म की मुख्यता से वस्तु का निरूपण करना चाहिए और शेष अनिरुपित धर्म की भी सचोट श्रद्धा होनी चाहिए । इस प्रकार मुख्य और गौण धर्म की सापेक्ष प्ररूपणा करने से श्रोता को यथार्थ बोध होता है ।
शुद्ध आत्मद्रव्य में प्रतिसमय अनन्तगुण पर्याय के जो भिन्न भिन्न अद्भुत अनुपम कार्य एक साथ हुआ करते हैं उसका स्वरूप भी जिनवाणी द्वारा जाना जा सकता हैं । जैसे कि -
(१) शुद्ध आत्मद्रव्य में ज्ञानादि अनन्त गुण-पर्याय की सदा सत्ता है । (२) शुद्ध आत्मद्रव्य में ज्ञानादि अनन्त गुण-पर्याय की सदा परिणति होती रहती है । (३) शुद्ध आत्मद्रव्य में ज्ञानादि अनन्त गुण-पर्याय की सदा वर्तना है । (४) शुद्ध आत्मद्रव्य में ज्ञानादि अनन्त गुण-पर्याय की उपरोक्त प्रवृत्तियों का पूर्ण ज्ञान है । (५) शुद्ध आत्मद्रव्य में ज्ञानादि अनन्त गुण-पर्याय के भोग का आनन्द भी है । (६) शुद्ध आत्मद्रव्य में ज्ञानादि अनन्त गुणपर्याय के विषय में रमणता करने का आनन्द है । (७) शुद्ध आत्मद्रव्य में अव्याबाध सुखादि अनन्त गुणों का भिन्न भिन्न आनंद है, इत्यादि ।
आत्मा का ऐसा अस्ति-नास्ति स्वभाव प्रत्येक संसारी आत्मा में अप्रकटरूप से रहा हुआ है । उसका यथार्थ स्वरूप जानने से वैसे शुद्ध स्वभाव को प्रकट करने की रुचि मुमुक्षु आत्मा को हो, यह सहज है ।
परन्तु इच्छामात्र से कार्यसिद्धि नहीं होती । जिनका ऐसा शुद्ध स्वभाव प्रकट है, उनके प्रति नमस्कारभाव आना चाहिए और उनकी कृपा से ही मेरा मनोरथ पूर्ण होगा । एसी अनन्य श्रद्धा के साथ उनके पास ऐसी याचना करनी चाहिए। इस स्तवन की नौवीं और दसवीं गाथा से हमको यह जानकारी प्राप्त होती है ।
સ્તવનમાં આપેલા ચિત્રોનું વિવરણ ૧૭(૧) શ્રી કુંથુનાથ ભગવાન ૧૭(૨) સમવસરણમાં બિરાજમાન પરમાત્મા (દેશના) ૧૭(૩) સમવરણમાં બિરાજમાન પરમાત્મા (દેશના)
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