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अथ सप्तदश श्री कुंथुजिन स्तवनम्
॥ चरम जिनेसरूं - ए देशी ॥
समवसरण बेसी करी रे. बारह परषद महेि। वस्तु स्वरूप प्रकाशता रे, करुणाकर जगनाहोरे॥
कुंथुजिनेससा॥
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