________________
128
सिरिसोमप्पहायरियविरडआ
||८३॥
॥८४॥
ता भो महाणुभावा ! विसय-सुह-विरत्त-माणसा होउं। सव्व-विरइं पव्वन्जिय समुज्जमह धम्म-कन्जम्मि कुणह कसाय-विणिग्गहमिंदिय-दुइम-तुरंगमे दमह। सेवह गुरुकुल-वासं उवसग्ग-परीसहे सहह जेण भवजलहिमुल्लंघिऊण जर-जम्म-मरण-कल्लोलं। सयल-किलेस-विमुक्कं निव्वाण-सुहं लहुं लहह
॥८५।। एवं सोउं संविग्ग-माणसा दो वि मयण-धणदेवा। नमिऊणं मुणिनाहं जंपिउमेवं समाढत्ता
॥८६॥ भयवं! भवंधकूवम्मि नूणमम्हाण निवडमाणाण। दिक्खा-हत्थालंबण-दाणेण अणुग्गहं कुणसु
||८७॥ गुरुणा वि तओ दिन्ना दिक्खा ताणं पहिट्ठ-हिययाणं। तो सिक्खिय-मुणि-किरिया अहिजिया सेस-सुत्तऽत्था कय-तिव्व-तवच्चरणा परोप्परं पणय-निब्भरा निच्चं । एक्क-गुरुवास-वसिया पज्जते तह कयाणसणा मरिऊणं सोहम्मे एक्क-विमाणम्मि दो वि उववन्ना। तत्थ वि पुव्व-सिणेहेण सयल-कज्जाइं कुणमाणा
॥९०॥ पंच-पलिओवमाई परमाउं पालिउं तदवसाणे। तत्तो चुया समाणा संजाया जत्थ तं सुणसु
॥९१।। तत्थ मयण-जीवो इहेव विजये विजयपुरे नयरे समरसेणस्स रन्नो महादेवीए जयावलीए पुत्तो मणिप्पभो नाम संजाओ। अहिगयकलाकलावो संपत्त-जोव्वणो कय-दार-परिग्गहो पलिय-पलोयण-पबुद्ध-जणय-समप्पिय-रज्जभारो उभयलोगाविरुद्धं विसम-साहस-वसीकयासेस-सामंत-मउलि-मणि-मसणिय-पायवीढं रायलच्छिमुव जंतो कालं वोलेइ।
||८८।।
||८९॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org