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॥ आत्मशिक्षा - ष्टकम् ॥
कर्ता - आचार्य महाराज श्रीविजयपद्मसूरिजी
( आर्यावृत्तम् )
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असयपुण्णुदयाओ, जीवे लद्धं तर मणुस्सत्तं ॥ जिणवण सुई तत्थ वि, संपण्णा कम्मविवरेहिं ॥ १ ॥ उत्तमसुराहिलासा साहलं नरभवस्स चारिता ॥ आसणसिद्धिभव्वा लहिज्ज चारित्तसंपत्ति ॥ २॥ वरदंसणनाणगुणा, देवाइभवेसु सम्भवंति तहिं || चरणं न तं नरभवे, तम्हा तस्सेव पाहण्णं || ३ | उग भमणं नियमा, पुग्गलरमणत्तमोहभावाओ || नियगुणरइवुड्ढीए, पुग्गलरइदोसपरिहाणी ॥ ४ ॥ नियगुणरइलाहट्ठ, भाविज्जा नियसरूवतत्तत्थं ॥ कोऽहं मे को धम्मो, देवगुरू के तहा मज्झं ॥ ५॥ सडूढाइभावजुत्तो, अप्पा णिच्चो मईयवत्थूरं ॥ पासे महं विहावे, तत्तो जुग्गो न रइभावो ॥ ६ ॥ जह रागदोसहाणी, पर्यट्टिअन्नं तहा तए जीवे ॥ साहात्रियपुण्णत्तं, एवं सइ होज्ज नियमाये ॥ ७ ॥ गुणरयण रोहणगिरी, पणटूटरागाइ भावरिउसेढी || साहियकेवल सिद्धी, कयपुण्णे ते नम॑सामि ॥ ८ ॥
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