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વેદ તો એમ વદે, શ્રુતિ સ્મૃતિ સાખ્ય દે, કનક કુંડલ વિષે ભેદ નોયે; ઘાટ ઘડ્યા પછી નામ રૂપ જૂજવાં, અંત્યે તો હેમનું હેમ હોયે. જીવ ને શિવ તો આપ ઇચ્છાએ થયા, રચી પરપંચ ચૌદ લોક કીધા; ભણે નરસૈંયો તે જ તું તે જ તું, એને સમર્યાથી કંઈ સંત સીધ્યા.
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– નરસિંહ મહેતા
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राग
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આચાર્યશ્રી આનંદશંકર ધ્રુવ : દર્શન અને ચિંતન
काव्य : ३
"होरी"
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( काफी - ताल दीपचंदी)
कृष्ण कैसी होरी मचाई, अचरज लखियो न जाई;
असत सत कर दिखलाई, रे कृष्ण कैसी० (टेक)
एक समय श्रीकृष्णदेव के, होरी खेलन मन आई, एकसें होरी मचै नहि कबहुं, यातें करूं बहुताई;
यहि प्रभुने ठहराई, रे कृष्ण कैसी ०
पाँच भूत की धातु मिलाकर, अंड पचकारी बनाई, चौद भुवन रंग भीतर भरकर, नाना रूप धराई;
प्रकट भये कृष्ण कन्हाई, रे कृष्ण कैसी ०
पाँच विषय की गुलाल बनाकर, बीच ब्रह्मांड उडाई, जिस जिस नैन गुलाल पडी वह, सुधबुध सब विसराई; हि सूझत अपनाई, रे कृष्ण कैसी ०
वेद - अंत अंजन की सिलाका, जिसने नैनमें पाई, ब्रह्मानंद तिसका तम नाश्यो, सूझ पडी अपनाई; होरी कछु बनी न बनाई, रे कृष्ण कैसी
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ब्रह्मानंद
(अध्यात्ममनभासा)
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