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॥ ११ ॥ विनयवति ने कुलवति, शीलवति ने सुविचार, काके पुण्ये पामोये, कलावती घर नार ॥ १३ ॥ साथल कदल थंनमय, कर चरणे नही रोम; विपुल गुह्य मणि गूढ जल, निलवटि श्रको सोम ॥ १४ ॥ कटि लंकी उन्नत इय, पुष्टु पश्चिम नाग; नारि इसी घर थादरो, जिम लहो लखगी लाग ॥ १५॥ साथल होठ पयोधरे, रोमराय घण हुँत; जस मुख पलीए पांगरं, वहिलो कंत हणंत ॥ १६ ॥ जाडी जंघा जेह तणी, के विधवा के दास; के दारिति उखणी, रामा ह्रदय विमास ॥१७॥
॥ चोपाई ॥ जेहने पूंठे हुए आवर्त्त, ते सारे जरतार महंत; नाजितणा आवर्त्त विचार, माने देव समो चार ॥१॥ कटि आवर्त्त हुए जे तणे, ते बांदे हीमे थापणे; बोली बाला त्रिहुं प्रकार, परखीने परणो संसार ॥ ५ ॥ लंब ललाट उदर जग जास,
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