________________
(१५५) धुंसर शकट, शाडी कर्म कयुं ते वीकट; नामे बलद उंट गाडलां, वादे नाडी कर्म न जलां ॥ ११७ ॥ कूप तलाव खणावी खाण, पाहण फेोड मेमि बल जाण, फोफी कर्म ते नूमिशुं मले, पंच कुकर्म कह्यां एटले ॥ ११७ ॥ आगरि दंत चर्म ने चमर, वोहरी जीव अंगज अवर; मोती हिंग कवम शंखला, ए वाणिज्य दंत केटलां ॥ ११ ॥ लाख गलि मणसिल ने खार, लख वाणिज्य करो परिहार; मधु मांखण घृत गुल नही संहरो, ढीला रस वाणिज्य परिहरो ॥ १० ॥ पशु पंखी मानव विवशाय, केश वाणिज्य वरो कदेवाय; विष पाखर आंगां हथीयार, थाट विष वाणिज्य विचार ॥ ११ ॥ ए वाणिज्य पंच मम करे, वली सामा. न्य पंच परिहरे; उखल मुसल नीसा वाट, कोहलु घाणी घरंटी घाट ॥ १५ ॥ करे वाणि ज्य कांकसीा कोश, पीलणं कर्म कहीने सोश, पुश अंगे पडावे आंक, समरावे फोडावे नाक
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org