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________________ ( १४० ) ॥ ८ ॥ पापनीरु जे मूरख नही, दाखिण लाज दयालु सही; मध्य जाव सवि केस्युं रह्यो, सोम दृष्टि गुरुरागी को ॥ ए ॥ धर्म कथन निर्मल कुल होय, दोरघ दरशी श्रावक जोय; संगति वा विनय आदरे, गुण कीधो ते हईने घरे ॥ १० ॥ लबध लक्ष परहित जे दया, श्रावक गुण एकवीसे का; न्याय थकी घर लखमी मली, गुरु आचार बखाणे वली ॥ ११ ॥ श्री खे कुल वरते विवाह, पण ते गोत्र अनेरा मांह्य; मात तात गुरु जक्ति अपार, देशाचार करे व्यवहार ॥ १२ ॥ अवगुण कहिना नवि उच्चरे, सदाचारनी संगती करे; नही संकट ने नीच नही जिहां, थोमे द्वारे मंदिर तिहां ॥ १३ ॥ अति बानो प्रकट नवि वसे, टाले पाप पुण्य अन्य से; लाज मान घर लागे वरे, सिर अजरे जोजन परिदरे ॥ १४ ॥ जाणे अंग तषां बल जलां, जीपे वयरी जे मांहीला दान दया दम आणे देख वित्तिमान पहिरे पण बेष ॥ १५ ॥ पहिलं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005391
Book TitleVimal Mantri no Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1912
Total Pages180
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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