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( १३५) सुपन मध्य गज सायो कान ॥१॥ जाग्यो तव गुरू आगल गयो, सुपन कही रलीआयत थयो; सहगुरु सुपन विचार्यु तिसे, कई को करमे बेटो हसे ॥२॥ धर्मघोष बोले गणधार, कई को तीरथनो उझार; कई को करस्यो मोटुं काम, जेणे तुम्ह रहेशे अविचल नाम ॥ ३ ॥ आव्यो संघ सकल समुदाय, धर्मकथा कहे सहगुरु राय; जे जिनधर्म जगत्र दाखीउ, चिहुँ नेदे जिनवर नाखी ॥ ४॥ वीस सहस नवसें त्रण मास, पण दिन पोहर घडी आस; दो पल ने अदर अवताल, वीर पनी होलि विसराल ॥ ॥५॥ वरस बेहि उप्पसह हुसि, तेह सहित धरम जाईसि; मानव बीज रहे तिण नले, गिरि वैताढ्य (बहुतर बिले ॥६॥ कहिये सकल धर्म तेहने, गुण एकवीस अंगि जेहने; काचे कुंन अमी आवास, सुंदर साहमो हुई विणास ॥ ॥ श्रावक गुण एकवीसे वमा, नही कुछ इसी पडवना; प्रकृति सौम्य लोक प्री सदा, श्रावक कुटुं न बोले कदा
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