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( १७ ) लाईनें, गुण होवे श्रतिघणो धर्म जो कहो, देवाणुप्रि य रायनें ॥ ४ ॥ ढाल ॥ केशी श्रमण कडे वली, चि त्र सुणो अधिकारो रे ॥ धरम लदे नहीं जीवडा, चार यानक सुविचारो रे ॥ चाल ॥ सुविचार थानक चार जाणो, धर्म न लड़े जिनतणो ॥ श्रारामनें उद्यान श्राव्या, श्रमण माहाण साधुनो ॥ नवि विनय सा चवे वंदना करे, यावी साहमो मनरली ॥ कल्लाण मंगल देव चैत्यज, केशी श्रमण कहे वली ॥ ५ ॥ ढाल ॥ देत रथ पूबे नहीं, प्रसन्न करे नहीं कोयो रे | इस कारण चित्र जीवडा, धरम लदे नहीं जोयो रे ॥ चाल ॥ इंम जोय न लहे धरम सुणवा, प्रथ मथानक ए को ॥ उपासरे पण एम जाणो, बीय थानक ए लह्यो | हवे तीय थानक साधु श्राव्या, गोचरी करवा सही ॥ तिहांसन पान तो शुद्ध देश, देत रथ पूढे नहीं ॥ ६ ॥ ढाल ॥ चोथो थानक जा पीयें, जिहां मले श्रमणनें साधो रे ॥ हाथनें वस्त्रशुं
पीनें, ढांकी रहे साबाधो रे ॥ चाल ॥ श्रबाध पामें साधु देखी, हेतु जुगति पूबे नही, इस चार थानक धर्म सुवा, जीव न लड़े म सही ॥ हवे चार थानक धरम पामें, चित्र एम वखाणी यें ॥ श्री
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