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(२०) केवली परिणीत सुणवा, चार थानक जाणीयें॥७॥ ढाल ॥ वन पारामें आविया, श्रमण मादण सुख कारो रे॥साहमोजश्वंदना करे, जावडुंये सतकारो रे॥ चाल ॥ सतकार देई अरथ पूजे, तो लहे जैन धरम जलो॥ श्म श्रावीया उपासरे वली, साधुवांदे गुणनीलो ॥ कहाण मंगल देवचैत्यज, शुधनावन नाविया, इंम धर्म पामे साधु वांदे, वली उपासरे श्रावीया ॥ ७ ॥ त्रीजे थानक गोचरी, आवे साधु जिवारो रे ॥ पडिलाजण करे नावशें, सूजंता शुद्ध आहारो रे ॥ चाल ॥ थाहार सूजता शुरु आपे, तो लहे धर्म केवली ॥ थानकें चोथे साधु देखी, श्राप ढांके नवि वली ॥ईम चार थानक धर्मपामे, चित्र सांजलो चित्त धरी ॥ श्रीकेवली परिणीत प्र वचन, त्रीजे थानक गोचरी ॥ ए॥ ढाल ॥ तुम प रदेशी नवि करे, चारेमा एक प्रकारो रे ॥ धर्म क हीजें केणी परे, श्रुतने सुणे कवण प्रकारो रे॥चाल॥ प्रकार किणी परें श्रवण सांदी, सूत्र अरथ इसी परें ॥ ए धर्म पामतां दोहिलो जग, जाण चित्र तुं
णी परें । एक वचन श्रारज श्रीदया मय, जो सु णी जीव चित्त धरे ॥ तो लदे धर्म जिणंद केरो, तुम
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