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________________ चंदराजानो रास. प्रतिरूप लखी जसे, दर्पणना गृह मांहे रे ॥ श्री० ॥ १३ ॥ राय्यो कुगुरु कुदेव कुधर्मथी, सुगुरू तत्वादि उवेखी रे ॥ लोका लोक प्रदेश विष थयो, ए चेतन बहु नेखी रे ॥ श्री० ॥ १४ ॥ अर्थ ॥ पर-पुद्गलिक स्वरूपमा आजीव मशगुल श्रतां तद्रूप प्रवाहमां तणातां जेम कुतरो आरिसामां पोतानं प्रतिबिंब देखी सामो बीजो कुतरो के एम मानी तेना सामो नसे वे परंतु या पोतार्ने प्रति बिंब तेम जाणतो नथी, तेवी रीते पोताना स्वरूपने जाणतो नथी ॥ १३ ॥ शुद्ध देव, गुरू, धर्मने तजीदर, कुदेव, कुगुरू अने कुधर्ममां राची रह्यो. एम श्रतां लोका लोकना प्रदेशने विषे श्रा जीवे अनंता नव को. ॥१४॥ तेजस कार्मण नावाए चढयो, रागादिक ते नमावे रे ॥जीम नवो दधि हुँती प्राणी, जिन मत घाट न पावे रे ॥श्री० ॥ १५ ॥ निमित्त प्रयोगे रे अविरति अणुसर्यो, देशविररिति मांहि पेसे रे ॥ व्रत पोसह पञ्चख्खाण पूजादिके, कर्म संजारने खेसे रे ॥ श्री० ॥ १६ ॥ अर्थ ॥ एवी रीते श्रा संसार समुफ जे महा जयंकर तथा विशाल ने तेमां तेजस अने कार्मण रूप नावमा चढतां, राग देषादि पवनोथी समुजमां नमावतां श्रा प्राणी जिनेश्वर नगवानना मत रूप आराने पामतो नथी॥१५॥ एवीरीते संसारमा अनंता काल सुधी परिचमण करतां, नव परिणतिनो परिपाक थतां, सुदेव, सुगुरूनो संयोग थवा रूप निमित्तना बलथी था जीव सम्यग् दर्शन पाम्यो; अनुक्रमे अविरतिपणामां रेहेतां सद्गुरूना उपदेशथी देशविरतिपणुं धारण करे एटले व्रत-पच्चरकाण-पोसह-जिनराजनी पूजा प्रमुखश्री कर्मनी जाड्यताने खसेडी नाखे-कर्म पातला करी नांखे. ॥ १६ ॥ ढींगलीथीरे रमती बालिका, जेम निज पति सुख पावे रे ॥ तेम छादश ब्रत खेलो खेलतां, अनुक्रमे संयम आवे रे ॥ श्री० ॥ १७ ॥ साधे जो श्रप्रमत्तपणा थकी, प्राणादि पंच समीरो रे ॥ रेचक पुरक कुंजक अन्यसे, साष्टांग योग सधीरो रे ॥ श्री० ॥ १७ ॥ अर्थ ॥ जेम ढींगला ढींगली पणे वर वहुनी रमत रमतां बाल कुमारिका अनुक्रमे पोताना पतिनुं सुख पामे ने तेम बार व्रत रूप खेलोमां रमणता करतां अनुक्रमे आ जीवने संयम प्राप्त थाय ने ॥ १७ ॥ अनु क्रमे अप्रमत्त पणे प्राण-अपान-उदान-ध्यान-समान ए पांचे वायुने साधतां, रेचक, पुरक अने कुंजक रूप प्राणायामनो अन्यास करे तो ते धैर्यवंत आत्मा अष्टांग योग सिद्ध करे. ॥ १० ॥ लागें ताली रे तारा दृष्टिथी, धरे अमृत अनुष्टान रे ॥ श्रावे चिदानंद गेह स्वनावमां, लहे केवल परधान रे ॥ श्री० ॥ १५ ॥ थश्ने श्रलेशीरे देतुविना तिहां, एरंग बीज दृष्टांते रे ॥ पामे पंचम गति अवगाहना, थर परमातम प्रांते रे ॥ श्री० ॥ २०॥ अर्थ ॥ एवी रीते तारा दृष्टिथी मांडी आवे दृष्टिए वर्त्ततां अमृत क्रियामां प्रवर्ते तो शुद्ध आत्म स्व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005375
Book TitleChand Rajano Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1905
Total Pages396
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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