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________________ तृतीय उवास. अर्थ ॥ हे मारी वहाली सखी! आजे मारी डाबी आंख फरके ने अने बीजी शरीरनी एवी निशानी थाय ने के मने मारो स्वामिनाथ मलशे. देवीनां वचनने अनुसारे सोल वरसे हवे मारो उधार अशे. तेथी मलवानो संलव पण लागे ने ॥१॥ परंतु हे बेहेनो! मारा मनमां एज संदेह रह्या करे के मारो स्वामि क्यां अने बालानगरी क्यां? आज सुधी कांड पण संदेशो नथी तो एवी रीते मेलाप ते केम थाय? वली देवी पण खोटी होय एम केम बने ? ॥२॥ देवी वचन अमोघ, कहे सहु जनना उघ, था० तास जणाशे पटंतरोजी॥ महारो प्राणाधार, को कोश हजार, था० केम करीनांजशे श्रांतरोजी ॥३॥ विरह स्थिति परिपाक, थयो दिसे अर्वाक, श्रा० श्राज जरोंसो एहवोजी ॥ एहमा मीन न मेष,आज कल्याण विशेष,थासही मुज पियु मल्यो संजवेजी॥॥ अर्थ ॥ सर्वे मनुष्यो कहे जे के देवीन वचन हमेशां सफलज थायले. तेथी हवे खरी हकीकत शुं ने ते सेहेज जणा आवशे. मारो प्राणाधारतो हजार कोशथी पण वधारे दूर ने तो आवमुं मोटुं अंतर ते केवीरीते दूर थशे? ॥३॥ पेहेलां कांश वियोगनी स्थितिनो परिपाक (अंत) थयो लागे तेथीज मने मारो स्वामि मलशे एवो नरोसो लागे जे. हवे तो मने लागे ने के तेमां कांइ पण मीनमेष नश्री. आजे मारूं विशेष कट्याण श्रवा रूप मारो नाथ जरूर मने मलवानो एवो संनव थाय ॥४॥ कहे तव सजनी एम, पामी पूरण प्रेम, श्रा० तारुं कह्यु होज्यो खरुंजी ॥ पीयरनो जे प्रेम, निद्यो जाये केम, श्रा० स्त्रीने वक्षन सासरुजीं ॥५॥ चंद जिस्यो प्राणेश, अनोपम सुंदर वेश, श्रा० सहुने क्षण नवि विसरेजी॥ वहा लो मलशे श्राय, ए नही निष्फल थाय, श्रा० एम जे नित तप तुं करेजी ॥६॥ अर्थ ॥ प्रेमला खजीनां वचनो सांगली संपूर्ण प्रेम सहित सखी कहेवालागी के हे बेहेन ! तमारु बोलवु साचुं पम्जो. माबापना घरनो प्रेम कोपण रीते वखोमवाजेवो नथी. तोपण स्त्रीजातिने तो सासरानुं घरज बहु वहालुं लागे. ॥ ५॥ चंदराजाना जेवो अनुपम अने सुंदर स्वरूप वालो प्राणनाथ केवीरीते याद न आव्याकरे अर्थात् सहुको तेने एक क्षणवार पण यादलाव्या विना रहेज नही. जेने माटे तुं निरंतर तपश्चर्या करे ने ते तारो प्राणनाथ तने आवीने मलशेज. ए वात निष्फल थवानीज नथी.॥६॥ हुश्श्रवधि अनंत, केम वजी मले न कंत, ॥ श्रा० ॥ काले लंबर पण फलेजी ॥ होवे करीर पटीर, तीर जिहां तिहांनीर, ॥श्राातेम तुज वि रह नकां टलेजी ॥७॥ एहवे तेह विहंग, बेरंग सुरंग, ॥ श्रा॥ नट आव्या दरबारमांजी ॥ नेट्यो प्रवर नगरीश, शिव नट ये श्रा शीश, ॥ था ॥ रविजेम प्रतपो संसारमांजी ॥७॥ अर्थ ॥ हवे लांबी मुदत हती तेनो पण अंत आव्यो. तेथी तारो स्वामिनाथ केम मट्या विनारहे ? काल परिपाक थता जंबरो पण फले . केरमाने पण पत्र पुष्प आवेने श्रने ज्यां सरोवर होय त्यां पाणी आवे के तो तारो विरह केम नही. दूर थाय अर्थात् दूर अशेज.॥७॥ एवा अवसरमा उत्तम Jain Education International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005375
Book TitleChand Rajano Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1905
Total Pages396
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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