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(१३) ॥ शीयाले सहे शीत रे ॥सु॥ मांस मसानां दुःखस हे ॥ सु०॥ शत्रु मित्र समचित्त रे ॥ सु०॥७॥ मुनि वर समता रस नस्यो। सु०॥ कांचन उपल समान रे ॥ सु०॥ पुक्कर तप संजम धरे ॥ सु०॥ न करे तासु निदान रे ॥ सु० ॥ ७॥ हसे धुंके हेला करे रे। सु० ॥ मलमलीन तनु देख रे ॥ सु॥ए पुगंध दोजागीया ॥सु०॥ करे घणो विशेष रे ॥सु ॥ ए॥रूप मदे मो ह्यो थको रे ॥ सु०॥ धर्मबुझि उवेख रे ।। सु०॥ कर्म उदय सब ते हुवे ॥ सु॥ थाय कुरूप विशेष रे ॥ सु० ॥ १० ॥ आदरशुं ढाल आठमी ॥ सु०॥ सुणतां होय श्राणंद रे ॥ सु०॥ देवचंद वाचक तणो ॥ सु ॥ शिष्य कहे वीरचंद रे ॥ सु०॥ ११॥ इति ॥
॥दोहा॥ ॥ःखे आंख रहि रहि, तेहगें कहो कुण पाप ।। परगुण देखी नवि शके, तेहथी आंख अदाप ॥१॥ शिर कर कंपे जेहना, गात्रे थाय प्रखेद ॥ अंग सघलां शूनां होये, कवण कर्म संवेद ॥२॥ मारगमांदे हीमतां, शस्त्र हाथमां होय ॥ वाहे जिहां तिहां काम विण, कंपरोग तेणे जोय ॥३॥ पक्षाघात परानवे, कवण करण संयोग ॥ दाणे स्त्री हत्या करे, अर्थ अंग हुवे रोग |
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