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________________ विनयविलास तोहे सब, ब्रह्म ग्यानकी सेरी ॥ माया मोह तिमिर दल, ग्यान कला गति घेरी ॥हो ॥४॥ विनय खरूप संजारो अपनो, धर्मति दूर उखेरी ॥ श्रापही आपसों आप विचारो, मुगति नश् अब मेरी ॥ ॥ हो ॥५॥ इति ॥ ॥ पद बत्रीशमुं॥ ॥ राग रामकली ॥ श्रब क्युं न होत उदासी, हो यातम ॥ अब क्यु न॥ए थांकणी॥ उलट पलट घट घेरी रही है, क्युं तुम आशा दासी॥ हो॥ ॥१॥ निसि बासर उनसुं तुम खेलो, होत खलकमां हांसी ॥ोरो विषम विषयकी श्राशा, ज्यु नि. कसें नव फांसी ॥ हो॥॥पूरण जश्न कबहीं किसकी, पुरमति देत विसासी ॥ जो डोरी नहीं सो. बत इनकी, तो कहा जये सन्यासी॥ हो ॥३॥ रूपरही सुमति पटराणी, देखो हृदय विमासी ॥ मुफ रहेहो क्या मायामें, अंते बोरी तुम जासी ॥ हो ॥४॥ श्राश करो एक विनय विचारी, अवि. चल पद अविनासी ॥ श्राशा पूरण एक परमेसर, सेवो शिवरपुरवासी ॥ हो ॥५॥इति ॥ N. . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005365
Book TitleVairagyopadeshak Vividh Pad Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1904
Total Pages164
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size5 MB
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