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________________ ३५ जशविलास हो ॥ श्रीनयविजय विषुध सेवककुं ॥ साहिब सुरतरु होय फल्यो हो ॥ संजव० ॥४॥ इति ॥ ॥पद पीसतालीशमुं॥ ॥ राग नट्ट ॥ प्रजुतें हियडो हेज हट्यो हो ॥ टेक ॥ याकी सोजा विजित तपस्या, कमल करतुंहे जलचारी॥ विधुके सरन गयो मुख थरिके, बनतें गगन हरिण हारी ॥ प्रज्जु ॥१॥सहजहि अं. जन मंजुल निरिषत,खंजन गरव दियो मारी॥बिन खर दे चकोरकी सोजा, अग्नि नखे सो पुःखजारी। प्रजुतें ॥२॥ चंचलता गुन लियो मीनको, अलि ज्यु तारी हे कारी ॥ कहुं सुजगता केती इनकी, मोहि सबहि अमरनारी ॥ प्रजुते ॥३॥ घूमत हे समता रसपाने, जैसे गजवर मद जारी॥ तीन जुवनमां नही को श्नको, अनिनंदन जिन अनुकारी॥ प्रजुते ॥४॥ मेरे मन तो तुमहि रुचत हे, परे कुन परकी लारी ॥ तेरे नयनकी मेरे नयनमें, जस कहे देउबविशवतारी॥प्रजुतें ॥५॥इति ॥ ॥पद बेतालीशमुं॥ ॥ राग मारु ॥ सुमति नाथ साचाहो ॥ टेक ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005365
Book TitleVairagyopadeshak Vividh Pad Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1904
Total Pages164
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size5 MB
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