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जशविलास नु कंचन देहा ॥ हरीहर ब्रह्म पुरंदरा, तुज श्रागें केहा ॥श्रजीत॥२॥ तुंही अगोचर को नहीं, सजन गुन रेहा ॥ चाहे ताकुं चाहिये, धरी धर्म सनेहा ॥ अजित ॥३॥ नक्ति वछल जग तारनो, तुंबिरुद वदेहा ॥ वीतराग हुए वालहा ॥ क्युं कर्म री बेहा ॥अजितः ॥ ४ ॥ जे जिनवर हे नरतमें, एरावत विदेहा ॥ जस कहे तुज पद प्रणमतें, सब प्रणमे तेहा ॥ अजित ॥५॥
॥पद चुमालीशमुं॥ ॥ राग गोडी ॥ संजव जिन जब नयन मिल्यो हो ॥ टेक ॥ प्रगटे पूरव पुण्यके अंकुर, तबतें दिन मोहि सफल वत्यो हो ॥ संजव० ॥१॥अंगनमें श्रमियें मेह वूडे, जन्म तापको व्याप गयो हो ॥ जैसी नक्ति तैसी प्रजु करुना, श्वेत संखमें बुध मिल्यो हो ॥ संजव० ॥२॥ मरत फिरत दे रही दीलतें, मोह मन जिणे जगत्रय बस्यो हो ॥ समकित रतन लेहु दरिसणतें, अब न जाऊं कुगति रख्यो हो ॥ संजव० ॥३॥ नेह नजर जर निरखतही मुफ, अनुसुं हियडो हेज हव्यो
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