________________
२६
जशविलास
बन धाम ॥ जटाधार वट जस्म लगावत,रासस हतु हे घाम ॥ जबलगम् ॥३॥ एतेपर नहीं योगकी रचना, जो नहि मन विश्राम ॥ चित अंतर पर बलवेकुं चिंतवत, कहा जपत.मुख राम ॥ जबलग ॥४॥ बचन काय गोपें दृढ न धरे, चित्त तुरंग लगाम ॥ तामे तुं न लहे शिवसाधन, जिउ कण सुने गाम ॥ जबलग० ॥५॥ पढो ज्ञान धरो संजम किरिया, न फिरावो मन गम ॥ चिदानंद घन सुजस विलासी, प्रगटे आतमराम ॥ जबलग० ॥६॥ इति ॥
॥पद पांत्रीशमुं॥ ॥ राग सोरठा ॥ चतुरनर सामायक नय धारो ॥ टेक ॥ लोक प्रवाह बांडकर अपनी, परिणति शुक विचारो ॥ चतुरनर ॥१॥ अव्यत अखय अनंग श्रातमा, सामायक निज जातें ॥ शुरूप समतामय कहीएं, संग्रह नयकी वातें ॥ चतुरनर० ॥२॥श्रब व्यवहार कहे युं सब जन, सामायक हुइ जावे ॥ तातें श्राचरना सो माने, ऐसा नैगम गावे ॥ चतुरनर ॥३॥ आचरना रिजुसूत्र
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org