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संयम तरंग
१३७ फलसम रूप रेह, नवसंग सुख जेह ॥ अंतर हालाहल सही, पुर्धर पुःखद लगेह ॥ नि० ॥३॥ काचखंड तुं गंडदे, चिंतामणिकुंजील ॥ नवनिधि संयम श्रादरी, ज्ञानानंदे हील ॥ नि॥४॥इति ॥
॥पद बहुं॥ ॥ राग वेलावल ॥ पर परिणतिकुं तज करी, निज परिणति लहे सार ॥ प०॥ टेक ॥ निज परिपति कर जस लहे, उजय लोक सुखकार ॥१०॥१॥ मुंगी होय जिम ईलिका, मुंगी सर अनुराग ॥ अरनी अगनी परगटें, पय गत सर पिष जाग ॥ प० ॥ ॥१॥ जिम शशिथी अमृत लहे, पारस कनक विचार ॥ तिम निज परिणति आचस्यां, सहजें परसंग वार ॥ १० ॥३॥ समता संग रमण करे, चार सखियुत तेह ॥ नवनिधि संयम तनमय, ज्ञानानंद सुख गेह ॥ प० ॥४॥ इति
॥पद सातमुं॥ ॥ राग काफी ॥ चेतन तुं क्यों फरे नूला, हिंमोला करमका कोला॥ए चाल ॥साधो तम निजघटमें देखो, मत पख हठता नहिं पेखो ॥ सा ॥ चेतन
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